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________________ १०४ जैन-संस्कृति का राजमार्ग और सिद्ध हो सकता है । निष्कर्ष यह हुआ कि हम भी मुक्त होकर सिद्ध हो सकते हैं और इसीलिए परमात्मा को प्रार्थना व स्तुति की जा रही थी ही सुविधि जिनेश्वर वन्दिये हो वन्दत पाप पुलाय । अब एक और प्रश्न रह जाता है कि जब सिद्ध या मुक्त कुम्भकार को तरह कर्ता नही है और हमारी प्रार्थना व अप्रार्थना मे वह रीझता या रूसता नही है तो फिर उसकी प्रार्थना करने क्या लाभ ? प्रार्थना के असली महत्त्व को समझने की दृष्टि से यह प्रश्न वडा महत्त्वपूर्ण है । मैं आपको पूछता हूँ कि आप प्रार्थना क्यो करना चाहते हैं ? सभव है, कई यह समझते होगे कि प्रार्थना करने से भगवान् हमारी मन की इच्छाएं पूरी करेंगे और उनकी समझ होती है ससार की इच्छाओ के सम्बन्ध मे। मतलब कि भगवान् की प्रार्थना करेंगे । तो धन, परिवार या कि उपयोग आदि की दृष्टि से उनका सुख बढ़ेगा और इस सम्बन्ध में कोई कष्ट आवेगा ही नही या नावेगा तो भगवान् उसे दूर कर देगे। अथवा प्रार्थना से प्रभु प्रसन्न रहेगे और भक्त जन पर अपनी कृपा बरसाते ही रहेगे कि वह किन्ही कष्टो से पीड़ित न हो। प्रार्थना करने के सम्बन्ध मे ऐसी भी भावनाएं कई दर्शनो मे मानी जाती हैं और उसका प्राधार वही है कि ईश्वर ही संसार में होने वाले हर कार्य का प्रेरक है । वस्तुतः प्रार्थना या गुणगान ईश्वर को प्रसन्न करने या रिझाने के लिए नही किया जाता । वह ईश्वर तो ससार से अलिप्त है, उसे अापकी प्रार्थना से क्या ? वह प्रार्थना और गुणगान करना है अपनी ही पात्मा के लिए। उनके गणो का स्मरण करके, उनके विशुद्ध अात्मस्वरूप पर चिन्तन करके हम अपनी आत्मा मे विकास की प्रेरणा जगा सकते हैं और उस स्वरूप को आदर्श मानकर उस दिशा मे गति कर सकते है। इसलिए प्रार्थना व गुणगान से अपनी आत्मा का विकास संभव है। ठीक उसी तरह जिस तरह सूर्य की ऊष्णता से किसान अपनी फसल पकाता है, धान्य की उपलब्धि करता है किन्तु उस उत्पादन से सूर्य का अपना कोई वास्ता नही
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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