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________________ १०५ जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा? होता। सूर्य अलिप्त है उस फसल से और धान्य से, वह तो किसान की प्राप्ति है, सूर्य उसमे का नहीं। उसी प्रकार मुक्त और सिद्ध ईश्वर अलिप्त होते हैं, वीतराग होते हैं, किन्तु उनके तेज से यदि बद्ध प्रात्माएं प्रेरणा लेकर विकास करना चाहे- प्रात्मोत्थान की फसल पकाना चाहे तो वे उनके प्रादर्श को अपने सामने रखकर वैसा कर सकते है । इसी दृष्टि से प्रार्थना और ईश गणगान का महत्त्व है। उसका सम्बन्ध किसी सासारिक वासना या कामना से नहीं है। भगवान महावीर ने कहा कि जिन होकर जिन को देख सकोगे प्रत प्रार्थना की एकाग्रता व तल्लीनता हमे भी विरागी होने की प्रेरणा देती है और एक विरागी ही बीतरागी के स्वरूप का यत्किचित् दर्शन कर सकता है। प्रार्थना केवल वाणी से नहीं, मन, वचन और काया द्वारा प्रभु के ध्यान मे तल्लीनता लाने ने सफल होती है । एक कवि ने कहा है कि खुदा से मिला वो खुदा हुआ, नहीं जुदा हुआ। प्राप लोग खुदा का नाम सुनकर चौंके होगे कि यह इस्लाम की क्या बात है ? हम तो अनेकान्तवादी हैं, जहां भी सत्याश हो उनको प्रेम से ग्रहण करो और पूर्ण सत्य के दर्शन की चेष्टा करो। खुदा फारसी भाषा का शब्द है । यह शब्द खुदा "खुद आमदन" से बना है जिसका अर्थ होता है स्वयं प्राया दृप्रा । प्रात्मा बना हुप्रा नही है क्योकि जो बनता है वह नष्ट भी हो जाता है । जैसे मकान, कपडा, शरीर प्रादि धनते हैं तो नष्ट हुए देखे जाते है, लेकिन प्रात्मा बना हुप्रा नही है प्रत. खुदा है। अब जो खुदा से मिला, प्रर्थात् जिसने प्रात्मस्वरूप मे रमण किया, वह खुदा बन गया, परमात्मा हो गया और जब वह श्रात्मा एक वार परमात्मा हो गया तो फिर उस ईश्वरत्व से वह कभी जुदा होने वाला नहीं है । एक बार ईश्वरत्व, सिद्धत्व प्राप्त करने परमात्मा पुन. कभी ससार मे नही लौटता, वह वहीं अनन्त श्रानन्द मे लीन रहता है। इसलिए शुह विचारणा व शुद्ध भावना से ईश्वर की प्रार्थना करना
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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