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________________ जैन-सस्कृति का राजमार्ग साधन है, साध्य नही। साध्य तो सिद्ध ईश्वरत्व प्राप्त करना है । प्रार्थना मे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह प्रादि सत्पुरुपार्थ स्पष्ट होते है तथा 'इन सत्पुरुषार्थों को श्रात्मा के पराक्रम से साध लेने पर विकार नष्ट होते हैं और विकास उपलब्ध होता है। जैसे गुरू के पास विद्याध्ययन करने से ज्ञाना. वरणीय कर्म नष्ट होता है और आत्मा का गुण-ज्ञान प्रकट होता है । स्वर्ण के विकार को जैसे अग्नि के ताप से नष्ट किया जाता है वैसे ही प्रात्मा के विकार इन सत्पुरुपार्थों की साधना से गलते पोर जलते चले जाते हैं । शास्त्रो में प्रात्मोत्थान के जितने भी साधन बताये हैं, उनका मूल उद्देश्य पुद्गलो के मोह को दूर करना और अपनी ही प्रात्मा मे रहे हुए ईश्वरत्व को पहचानना तथा प्रकटाना है । जड पदार्थों से मोह और परिग्रह से ममत्व हटता है तो प्रात्मा का स्परूप उज्ज्वल होने लगता है । इम स्वरूप को उस चरम स्थिति पर विकसा देने का नाम ही मुक्ति है, वे ही मुक्त ईश्वर हो जाते है । मुक्ति इसी देह मे, इसी ससार मे साघी जा सकती है । आवश्यकता है कि इन पुद्गलो का मोह दूर हटाया जाय । इन पुद्गलो की भयंकरता पर एक कवि ने इस तरह प्रकाश डाला है पुद्गल दे दे धक्का, तूने मुझको खूब रुलाया रे । ध्रुव । षड्द्रव्यन में तू और मैं, दोनो हो हैं बलवान । तूने मुझको ऐसा बनाया, मै भूल गया स्वभाव ॥१॥ यद्यपि मै हूँ सिद्धस्वरूप, तू अचेतन भाव । तुझ जड़ से मै ऐसा बंधिया सोया चेतन नांव ॥२॥ ससार की चारो गतियो मे भ्रमण कराने वाला यह पुद्गल मोह ही है । कवि ने तो सव बोझ पुद्गलो पर डाला है पर वास्तव में प्रात्मा का अपने स्वरूप को भूलकर इन पुद्गलो मे पासक्त होना ही अपना पतन कराना है । इस कठिन विषय को मैं एक दृष्टान्त के रूप में सरल विधि से कहना चाहता हूं, ताकि बहिनें और बच्चे भी इसको आसानी से समझ लें। एक गांव में एक महाजन के चार लडकियां थी । वह उन सबकी शादी . कर चुका था। एक बार चारो जामाता ससुराल मे पाये। महाजन ने चारों
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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