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________________ जन-संस्कृति की विशालता जोवन पर्यन्त दास ही बना रहेगा और ईश्वर से मिलते ही करता रहेगा । उसे उन मिन्नतों के बदले मे कुछ सुख-सुविधाएँ तो मिल जाएँगी कि तु वह रहेगा गुलाम-का-गुलाम ही । जैनदर्शन अपने उत्थान - पतन का कर्ता एव अपने सुख-दुख का प्रणेता अपने ही आत्मा को मानता है । वह ईश्वर और भक्त के बीच हमेशा स्वामी सेवक की खाई बनाकर नही रखता । वह आत्मा के निज के पराक्रम का प्रज्ज्वलित करता है और निष्ठा के साथ यह कहना चाहता है कि प्रत्येक ग्रात्मा मे परमात्मा की शक्ति छिपी हुई है । आवश्यकता है कि उस शक्ति पर जो विकारो का मैल चढा हुआ है, उसे सयम और साधना से धो दिया जाय तो विकास की वह उच्चता उस आत्मा को भी मिल जाएगी जिम उच्चता पर हम ईश्वर को प्रतिष्ठित मानते है । तब वह आत्मा भी ईश्वरत्व में परिणत हो जायगा । अर्थात् ईश्वरत्व आत्म-विकास की वह चरम उच्चता है जो सभी भव्य आत्माओ को प्राप्य है और उसी को आदर्श मानकर समार मे माधना-मार्ग की गतिशीलता बनी रहनी चाहिए । प्रत्येक प्रात्मा विकाम करता हुआ ईश्वर बन सकता है और वह ईश्वर बनता है नो दूसरो पर स्वामित्व रखने के लिए नही किन्तु अपने ही ग्रात्म-स्वरूप की परम उज्ज्वलता को प्रकट करने के लिए। ऐसी विचारणा अवश्य ही मनुष्य की रचनात्मक व साधनाशील प्रवृत्तियों को जागृत करती है कि वह भी ईश्वर बन सकता है । इसके विपरीत अन्य दर्शनो में रही ईश्वर की धारणा मनुष्य को शिथिल बनाती है, क्योकि वह हमेशा भक्त ही रहेगा, दास ही रहेगा तो उसकी साधना को बन श्रौर उत्साह कहाँ से मिलेगा? १३ जैनदर्शन को मूलाधार श्रमरण-सस्कृति है । 'समरण' शब्द प्राकृत का है । मस्कृत में इनके तीन रूप हाते है - श्रमरण, समन और शमन । श्रमरग शब्द “श्रमु तपसोखेदे च " धातु से बना है । इसका अर्थ है श्रम करना। इसलिए जैन-सस्कृति की मूल निष्ठा श्रम है । नियति - भाग्य के ग्राश्रय पर बैठने वाले निश्चित रूप से प्रकर्मण्य बनते हैं और अपने पतन को निकट लाते है | यदि अपनी उन्नति करना चाहते हो तो पुरुषार्थ करो, श्रम मे
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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