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जन-संस्कृति का राजमार्ग
मत्र कहलाता है, इस भावना का प्रतीक है कि निजत्व का व्यामोह जनसस्कृति को कभी छुआ तक नहीं है । देखिए यह है हमारा नवकार मत्र"गामो अरिहताण'-उन महापुरुषो को नमस्कार है जिन्होंने राग-द्वेष
प्रादि शत्रुनो को नष्ट कर दिया है और चरम वीतगगता को प्राप्तकर परिपूर्ण समदर्शी सर्वज बन गए है । इसमे भगवान ऋपभदेव या महावीर किसी का नाम से उल्लेख नहीं है। वह आत्म-विजेता कोई भी हो सकता है । जैन तो इम गुणवारी सभी महापुरुपो को
नमस्कार करना चाहता है । "णमो सिद्धाण"~-उन महापुरुषो को नमस्कार है जिन्होंने अपने प्रात्म
विकास को सिद्ध बना दिया है, जो मुक्तिगामी हो गए
है, जो निराकार, अव्यावाध मुख वाले है । "णमो पायरियाण"-उन सभी आचार्यों को नमस्कार है जो अपने पच
महाव्रत आदि ३६ विशिष्ट गुणो के आधार पर प्राचार्य
वने है और आचार्यत्व को निभाते है । "गामो उवज्झायाण"-~-उन उपाध्यायो को नमस्कार है जो पच महाव्रत
प्रादि गुणो से युक्त होकर मुख्यत वीतरागप्ररूपित
गास्त्रो के अध्ययन-अध्यापन में मलग्न हो। "णमो लोए सव्व साहूण"-लोक ( ससार ) मे सर्व साधुप्रो को नमस्कार
है । साधु वह जिसमे साधुत्व-सयम और साधना के गुण हो । यहां यह उल्लेखनीय है कि प्राचार्य, उपाध्याय या
साधु सभी मे गुणो का समावेश मानकर वन्दना की है। जैनधर्म उस सृषिकर्तृत्व में भी विश्वास नहीं रखता, जहाँ यही मान्यता हो कि ईश्वर तो एक है और वह हमेशा ईश्वर ही रहेगा, दूसरे प्राणी चाहे विकास की किसी भी सीढ़ी पर चढ जाएँ, ईश्वरत्व प्राप्त नहीं कर मकते । जैनधर्म इसे एक तरह से दामता मानता है कि प्रत्येक प्राणी