SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-संस्कृति की विशालता धार्मिक गुणो का आचरण करता है, वही सच्चे अर्थो मे धार्मिक है, वरना यह कहना गलत होगा कि एक जैन इसलिए जैन है कि उसने जैन घराने मे जन्म तो ले लिया है किन्तु जैनत्व का पालन नहीं करता। ____ स्मरण रखे कि जब-जब किसी भी धर्म या सस्कृति ने अपने अनुयायियो को यथायोग्य मुक्त चिन्तन का अवसर नही दिया और उन्होने कथित सिद्धान्तो के कठोर घेरे मे बांधे रखने का प्रयास किया तो वहाँ कदाग्रह फैला है । जहाँ बिना दिमाग के दायरे को खोले हुए एक हठ की जाती है, एक गलत प्राग्रह बनाया जाता है, वहां हमेशा घेरेबन्दी का कदाग्रह फैलता है और कुत्सित साम्प्रदायिकता पनपती है । क्योकि कुत्सित साम्प्रदायिकता की बुनियाद गुणो पर नही बल्कि, बेसमझी की गुटबन्दी पर होती है और गुटबन्दी खडी होती है व्यक्ति-विशेष के आश्रय पर । क्योकि एक व्यक्ति या तो अपनी कोई जिद पूरी करना चाहता है या अपने आग्रह को दूसरो पर बलात् लादना चाहता है, तब वह अपने प्रशसको का एक गुट बनाता है और वह गुट सिद्धान्तो को नही देखता, गुणो को नही परखता, सिर्फ अपने नेता का कदाग्रह पूरा करना चाहता है और उसी प्रयोजन से हरसभव प्रयत्न करना चाहता है । यही है साम्प्रदायिकता की बुनियाद, जिसमे गुणो का कोई सम्बन्ध नहीं होता । क्योकि जो प्रवृत्ति गुणो पर आश्रित होती है वहाँ कभी भी गुटबन्दी नहीं हो सकती । जैनधर्म गुणो के कारण ही व्यक्ति को महान समझता है, जन्म व जाति की दृष्टि मे नही । उत्तराध्ययन सूत्र मे ग्पष्ट कहा है कि जाति मे नही, वरन कर्म मे ही क्षत्रिय, कर्म से ही ब्राह्मण और कम मे ही वैश्य व शूद्र माना जाना चाहिए। कितना विशाल है जैनदर्शन जहाँ व्यक्ति का व्यक्ति के नाते कोई मोल-महत्त्व नहीं, महत्त्व है नो उमदे विकास का, उसके गुणो का । ___एक महत्त्व की बात बनाऊँ कि जैन दर्शन व सस्कृति के प्रणेताग्रो व प्रवर्तवो में भी कितनी विशाल उदारता थी। किसी भी अन्य दर्शन का वन्दना-मत्र लीजिए, उसमे नाम मे किमी-न-किसी महापुरुष की वन्दना वी गई होगी, किन्तु जैन-दर्शन का वन्दन-मत्र जो उसका महामत्र नवकार
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy