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________________ १० जन-सस्कृति का राजमार्ग भावना बलवती होती जाती है तो समझना चाहिए कि उसकी आत्मा मे जीतने का क्रम शुरू हो गया है । मन के विकागे को नष्ट करते हा ज्यो-ज्यो आत्म-विकास की सीढियाँ ऊपर चढते जाते है, जीनने का क्रम भी ऊपर चढता जाता है और एक दिन उस भव्य आत्मा का मुक्ति के महाद्वार में प्रवेश होना है। तो यह है हमारे यहाँ विजय का स्वरूप, जिसमे विजेता आत्मा होना है किन्तु विजित कोई नही होता । इस प्रकार जो अपने कर्मशत्रुओ पर. विकारो पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ले वे 'जिन' कहनाते है । वजय के इस क्रम को हमारे यहाँ गूथा गया है गुणस्थान की श्रेणियो मे । आत्मा की विचार-सररिणयो के साथ गुणस्थान की श्रेणियाँ चलती है, जिनका चरम विकास 'जिनत्व' में होता है। ऐसे 'जिन' भगवान ने चरम विकास के धरातल पर चढकर अपने ज्ञान-दर्गन-चारिय से उद्भूत जिन सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला, वे कहलाये जन-सिद्धान्त और उनके अनुयायी जैन । तो जैन का सम्बन्ध है अपने प्रात्म-शत्रुनो पर विजय से, अपनी आत्मा के गुणो के विकास मे । इसलिए जैन की कोई जाति, कोई वर्ग या कोई घेरे वाली बात नहीं है । जैन कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो अपनी कोशिशो को अपने मन को ऊपर उठाने में लगाए, आन्तरिक गुणो को चमकाए । जैनत्व का सम्बन्ध किसी खास क्षेत्र, व्यक्ति या ममूह मे नहीं, बल्कि मुख्यत गुणो से है और गुगो का क्षेत्र सदैव सर्वव्यापी और विशालतम होता है । इसलिए जैनधर्म को समझने के लिए सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि जैनधर्म के सिद्धान्तो मे माम्प्रदायिकता को कतई स्थान नहीं है। अमुक समाज या व्यक्ति ही इसके पालन करने का अधिकारी है-इम क्षुद्रवृत्ति से अछूता रहना ही यह दर्शन सबसे पहले मिग्वाता है । वह धर्म, धर्म नही जो विकारी भेदभाव की नीव पर खडा हो । धर्म का मम्बन्ध जाति या देश मे नहीं, गुणो मे होना चाहिए। जो व्यक्ति अपने जीवन में
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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