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जैन-संस्कृति की विशालता में आप के समय आज जैन दर्शन एव सस्कृति की विशालता पर कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ। यह समझने योग्य बात है कि जहाँ अन्य दन वा संस्कृतियाँ एक खास घेरे में अपने को सीमित करती हुई चली हैं वहाँ जनदर्शन का आधार अत्यन्त व्यापक व गुणो पर आधारित रहा है इसमे कभी सकुचितता व कुत्सित साम्प्रदायिकता का प्रवेश नही हो पाया। मूलमत्र नवकार मत्र मे लेकर ऊँचे-से-ऊंचा सिद्धात आत्मा के विकास की बुनियाद को लेकर निर्मित हुआ है ।
जनदर्शन मे न तो व्यक्ति-पूजा को महत्त्व दिया गया है, न ही सकुचित घेरो मे सिद्वान्तो को कसने की कोशिश की गई है। आत्म-विकास के सदेश को न सिर्फ समूचे विश्व को बल्कि समूचे जीव-जगत् को सुनाया गया है।
'जन' शब्द का मूल भी इसी भावना की नीव पर अकुरित हुआ है। मुल संस्कृत धातु है 'जि', जिसका अर्थ होता है-जीतना । जीतने का अभिप्राय कोई क्षेत्र या प्रदेश जीतना नही बल्कि प्रात्मा को जीतना, प्रात्मा की बुराइयो और कमजोरियो को जीतना है । आप अभी वालक है, फिर भी कभी अवश्य महसूम करते होगे फि जब कभी श्राप झूठ बोलो या कि कुछ चुरा लो नो प्रापका मन कांपता होगा, फिर उस गलती को सोचकर एक घृणा पैदा होनी होगी और उसके बाद आप लोगो मे से जो मजबूत इच्छाशक्ति के छात्र होगे, वे मन मे निश्चय करते होगे कि अब आगे से कभी ऐसी बुराई नहीं करेंगे । यही एक तरह से जीतने की प्रक्रिया है ।।
मनुप्य की धात्मा मे वातावरण से, सस्कार से यानी कर्म-प्रभाव से पाप कार्य करने की प्रवृत्ति होती है तो उस समय उसकी मम्यक् प्रतिक्रिया रूप जिस उत्थानवारी भावना का विस्तार होने लगता है और ज्यो-ज्यो वह