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________________ जैन-सस्कृति का राजमार्ग करना, प्राणिमात्र पर माम्यदृष्टि रखना और अपने प्रात्म-विकाम मे बाधक प असत् प्रवृत्तियों का शमन करना- यही साधुत्व है। इस सिद्धान्त की वास्तविकता को भी समझ लीजिए कि गुणो की स्थिति और गुणो का विकास भी मूलत भावना पर ही टिका रहता है। गणो के पक्ष मे भावनायो का ढलान और निर्माण यदि मजबूत बन जाय तो फिर उसके कार्यान्वय मे कभी दुर्बलता नही आ सकेगी । इसलिए भावनाओ के निर्माण की पहली आवश्यकता है । हमारे यहाँ एक कपिल केवली का वृत्तान्त पाता है । कपिल एक गरीब ग्राह्मण था, इतना गरीव कि वह अपने खाने-पीने के साधन भी मुश्किल मे ही जुटा पाता था । उस नगर मे राजा प्रात सर्वप्रथम दर्शन देने वाले ब्राह्मण को एक स्वर्णमुद्रा दान मे देता था । तीन दिन से भूखा-प्यामा कपिल दर्शन देकर स्वर्णमुद्रा प्राप्त करने की अभिलाषा से रात को १२ बजे ही घर में निकल पडा । प्रहरियो ने उसे पकड लिया मोर दूसरे दिन दरवार में कपिल को पेश किया गया। कपिल ने जब सत्य-सत्य स्थिति राजा को बताई तो वह दया से द्रावित हो उठा। उसने कपिल से इच्छा हो मो मांग लेने को कहा । कपिल ने सोचने के लिए समय मांगा और वह बाग में बैठकर मोचने लगा-~-जब मांगना ही है तो एक क्या दस स्वर्णमुद्राएं मांग नू फिर दम ही क्यो मौ, हजार, लाख स्वर्ण-मुद्राएं मांग लू । लेकिन अव राजा ने कहा ही है तो उसका समूचा राज्य ही क्यो न मांग लू.. किन्तु इस विचार के साथ ही उसके हृदय को धक्का लगा और उसकी भावना जागी- मै कितना क्षुद्र हूँ, राजा की उदारता का यह वदला देना चाहता हूँ कि उसका गज्य ही छीन ल । वह अपनी प्रात्मा को धिक्कारने भगा और यात्मिक विचारणा में डूबने लगा। कुछ क्षणो मे ही कपिल की भावना इतनी ऊँची चढ गई कि उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया । कहने का अभिप्राय यह है कि भावना के निर्माण पर ही गुणो का विकाम हो मकता है । भावना के धरातल पर गुण विकरें और
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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