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मपरिग्रहवाद याने स्वामित्व का विसर्जन
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लोग
परिस्थितियो और पदार्थो के सम्बन्ध मे बना ली जाती है । उदाहरण के लिए यदि एक मकान श्रापके स्वामित्त्व का है और श्रापके सामने कुछ प्राकर उसे गिराने लगे तो आप कितने परेशान हो उठेगे ? आप विरोध करेंगे, भागेगे धौर आवश्यक कार्यवाही करायेगे । तो उस मकान के साथ चूंकि प्रापका अपना स्वामित्त्व अपना ममत्त्व लगा हुआ है इसलिए उसकी सर्वाधिक चिन्ता श्रापको होती है । कल्पना कीजिये कि ऐसी ही स्थिति किसी दूसरे के मकान के साथ गुजरती है तो उसके साथ श्रापका ममत्त्व नही होने से प्रापको वह पीडा नही होगी। इसके विपरीत श्राप अपने निज के मकान
हे या कि वैसे ही सुख सुविधा वाले किराये के मकान मे रहे तो भी सुखानुभव मे काफी अन्तर होगा । तो मूल मे पदार्थ नही, उनका ममत्व ही आपके सुख श्रीर दुख का कारण बनता है ।
इसीलिए हमारे यहाँ परिग्रह की व्याख्या की गई है, "मूर्छा परिग्रह ।" पदार्थो को नाम परिग्रह नही, उनमे ममत्त्व रखकर श्रात्म ज्ञान ते सज्ञा शून्य हो जाना परिग्रह कहा गया है जब जड पदार्थों मे गृद्धि बढ़ती है और प्राणी अपने चेतन तत्व को भूलता है तब उसको परिग्रही कहा । तो यह स्पष्ट है कि परिग्रह पाप का मूल है और परिग्रह की मूल भावना स्वामित्व की भावना मे छिपी हुई है । मैं श्रमुक घनराशि का स्वामी हूँ या कि प्रमुक सम्पत्ति मेरे स्वामित्व में है । यह ममत्त्व जब मनुष्य के मन मे जागता है तो धात्मा को कलुषित करने वाले मैकडो दुर्गुण उसमे प्रवेश करने लगते है ।
समत्व से जागता है राग और द्वेप । श्रपनी सम्पत्ति के प्रति राग कि यह प्रोर उसकी रक्षा की जाय और राग जितना गाढा होता जायगा, उस सम्पत्ति की वृद्धि व रक्षा मे वह उचित श्रनुचित कार्य - प्रकार्यं सब कुछ बेहिचक परने लग जायगा । इसके साथ ही दूसरो की सम्पत्ति से उसके मन मे हे जागेगा और वह उस सम्पत्ति के प्रति विनाश को बात मोचेगा । इस राग और द्वेष को वृत्तियो के साथ मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, ग्रन्याय की हुई उपय मानद मन मे प्रवेश करती जायगी तथा इन बुराइयों की फैना