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________________ 1 शास्त्रों के चार अनुयोग मानव का उद्देश्य अन्धकार से प्रकाश की घोर वढते जाना है और चरम विकास के रूप मे एक दिन स्वय के जीवन को परम प्रकाशमय बना लेना है । जीवन के अन्धकार का आकाशदीप या प्रकाशस्तभ निर्मल ज्ञान है, क्योकि सम्यक् ज्ञान ही की दृष्टि से अपने विकास पथ का यथार्थतया श्रवलोकन किया जा सकता है । जिन महापुरुषो ने अपने जीवन मे उच्चतम विकास प्राप्त किया, उन्होने अपने ज्ञान और अनुभव के सफल सयोग से उत्थान की जो ठोस बाते बताई, वे हो घाज हमारे सामने शास्त्रोक्त सिद्धान्तो के रूप में उपस्थित है । शास्त्रों की पूर्ण प्रामाणिकता, वास्तविकता एव वैज्ञानिकता मे घटल व अटूट विश्वास करने का यही कारण है कि इनके निर्माता का ज्ञान व अनुभव उतना ही विशाल, सजग एवं सुदृढ था । इसलिए हजारो वर्ष बाद भी वह शास्त्रोक्त ज्ञान हमे हमारे घनान्धकार से प्रकाश की भोर उन्मुख करने मे ज्योतिर्मय प्रेरणा प्रदान करता है | तो यहाँ में भापके सामने श्रापकी प्रदर्शित इच्छा के अनुसार यह बताने जा रहा हूँ कि जैन शास्त्रों में चरम विकास की क्या स्थिति है, उसकी पूर्व भूमिकाएं क्या हैं तथा किन-किन सीढियो से शास्त्रोक्त ज्ञान विकास की मजिल की ओर धागे बढाता है ? प्रधानतया धार्मिक सिद्धान्तो का लक्ष्य मात्मविकास करना होता है। इसलिए ज्ञान, वैराग्य, तप श्रादि वैयक्ति साधना के साधनो का इनमे सविस्तार वर्णन भी होता है । इन सिद्धान्तो की कसोटी भी यही है कि कौन सिद्धान्त विकास के लिए कितनी बलवती प्रेरणा दे सकता है और पतन के समय उसे जागृत कर सत्य मार्ग पर ले घाता है ? इस दृष्टि मे कहना चाहूँगा कि जैन सिद्धान्त व्यक्ति के हृदयपटल की सूक्ष्म गहराइयो मे प्रवेश करते हैं और उसे अपने पतन से सावधान करते हुए उत्थान की प्रोर अग्रसर
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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