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________________ शास्त्रो के चार अनुयोग दृष्टि से ही मूल्याकन करना चाहिए । तीसरे चरण करणानुयोग मे जैनागमो मे विस्तार पूर्वक चरित्र चित्ररण का व्याख्यान किया गया है। ज्ञान की महत्ता चारित्र्य के साथ ही कही गई है। बिना चारित्र्य के ज्ञानी की उपमा शास्त्रो मे चन्दन के भार को वहन करता हुधा भी गधा जैसे उसकी सुगन्ध को नही समझता, वह तो उसे भार की तरह ही उठाये फिरता है, उसी तरह श्राचरणहीन ज्ञान भी भार रूप ही है । ज्ञान प्रोर चारित्र्य के सगम से ही मनुष्य अपने अन्तिम ध्येय तक पहुँच सकता है | ज्ञान के बिना चारित्र्य अन्धा है और चारित्र्य के बिना ज्ञान लंगडा, अत अन्धे प्रोर लंगडे के सहयोग करने से ही दोनो का धारण हो सकता है । प्राचरणहीन ज्ञान की तरह ही शास्त्रो मे ज्ञानहीत आचरण को भी महत्त्व नही दिया गया है। बिना सम्यक् ज्ञान के की जाने वाली कठोरतम क्रियाएं भी चारित्रिक विकास का कारण नही बन सकती । लोभी व्यक्ति भी अपने धनार्जन के लिए साधु की तरह शीत, ऊष्ण वर्षा के कष्ट सह सकता है, पर उनका कोई महत्त्व नही । जैसे बिना सुवास के पुष्प का मोल ही क्या ? उसी तरह प्रात्म-भावना विना तपादिक की कियाएँ श्रात्म-विकास मे सहायक नही हो सकती । दशवैकालिक सूत्र मे स्पष्ट कहा है कि तपस्यादि श्राचार का पालन न तो इस लोक मे प्रगता प्राप्त करने के हेतु करे, न परलोक के सुख की प्राप्ति के लिए । किन्तु केवल अपने ग्रात्म विकास के लिए पूर्ण निष्काम भाव से ही करे । ७५ जैन शास्त्रो मे ऐसी किसी भी क्रिया का विधान चारित्र्य की श्रेणी मे नही किया गया है, जिससे किसी भी रूप में मानसिक, वाचिक या कायिक हिंसा होती हो । यज्ञ, द्रव्य पूजा प्रादि का तो भगवान् महावीर ने खण्डन किया है | भाव-यज्ञ घोर भाव-पूजा का ही विधान सर्वत्र पाया जाता है । श्रात्म-विकास हित गति करने की विभिन्न श्रेणियां हमारे यहाँ कायम की गई हैं और तदनुसार ही चारित्र्य पालन की श्रेणियों का ही विवेचन किया गया है । सारे सासारिक व्यामोहो को छोडकर पूर्ण रूप से स्वपर कल्या रहित प्रगमन करने वाले पथिको के लिए साधु चारित्र्य या श्रपगार
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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