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________________ ४८ जन-संस्कृति का राजमार्ग मढने की वैसी लक्ष्यसाधित विचारणा उसमे बनी न रह सकेगी । अन्य सभी दर्शन कर्म व फल की परम्परा को स्वीकार करते है किन्तु " मा फलेषु कदाचन" के साथ । कर्म जीव कर सकता है किन्तु फल तो ईश्वर के हाथ है, उसी की प्रेरणा से सब कुछ चुकता है । जीव अपने सुख-दुख मे स्वतत्र नही है अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुख-दुःख यो । ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रयेव वा ॥ तो इस फलवाद की दृष्टि को गम्भीरतापूर्वक पहले समझ लेना जरूरी है क्योकि इसकी समझ के बिना कर्मवाद का वास्तविक स्वरूप ठीक समझ मे नही आ सकता । जैनधर्म कर्म - फलदाता के रूप मे ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नही करता । जैसे ईश्वर सृष्टि रचना के पचड़े मे नही, उसी तरह उसकी गति के पचड़े मे भी नही । जिस प्रकार जीव कर्म करने मे स्वतंत्र है उसी तरह फल प्राप्त करने मे भी । वही शुभाशुभ कर्म करता है और उनका शुभाशुभ - फल पाता है । जीव सम्वद्ध कर्म में ही यह स्वभाव है कि वह अपने कर्ता को उसके यथावत् फल से प्रभावित कर देता है । यह बात में दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दूं । मनुष्य चेतन है श्रोर मदिरा जड है, किन्तु जब एक मनुष्य मदिरा का पान कर लेता है तो मनुष्य से वह सम्बन्ध होने के कारण इतनी शक्तिशाली वन जाती है कि मनुष्य नशा न श्राने देने को कोशिश भी करे किन्तु नशा लाएगी ही । किन्तु इसमे यह मानने की जरूरत नहीं पडती कि मनुष्य मदिरा पीता है, ठीक है परन्तु उसे नशा देने के लिए श्रर्थात् मदिरा पीने का फल प्राप्त करने के लिए किसी अन्य शक्ति की श्रावश्यक्ता पडेगी । जिस तरह मदिरा स्वयं अपने पीने वाले को फल भुगता देती है, उसी तरह कार्य करने के साथ उस स्वभाव के कर्मपुद्गल, जो जीव के साथ भुगता देते है । अतः जैनधर्म ईश्वर प्रदत्त फलवाद को न मानकर स्वत कर्मफलवाद विश्वास रखता है । एक बात और कही जाती है कि चूंकि प्राणी अच्छे और बुरे दोनो
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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