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________________ जैन-सस्कृति का राजमार्ग तो श्रवश्य ही विरोध होता है, परन्तु भिन्न-भिन्न दृष्टियो की आज्ञा से भिन्नभिन्न गुण मानने मे कोई विरोध नही श्राता, जैसे एक व्यक्ति उसके पुत्र की अपेक्षा से पिता माना जाता है व पिता की अपेक्षा से पुत्र, तब पितृत्व व पुत्रत्व के दो विरोधी धर्म एक ही व्यक्ति मे अपेक्षा भेद से रह सकते हैं, उसमे कोई विरोध नही होता । विरोध तो तव हो जब हम उसे जिसका पिता माना है, उसी का पुत्र भी माने। इसी तरह भिन्न-भिन्न प्रपेक्षा से भिन्नभिन्न धर्म मानने मे कोई विरोध नही होता। मैं यहाँ किसी एक ही दिशा मे बैठा हुआ हूँ | लेकिन मेरे सामने श्राप लोग अलग-अलग दिशाओ मे मुख किए बैठे हैं श्रोर श्रतः श्राप लोग अपनी-अपनी अपेक्षा से मुझे अलग-अलग दिशा मे बैठा हुआ बतला सकते है । जो मेरे सामने बैठे हैं, उनकी अपेक्षा से मैं पूर्व मे बैठा हुआ हूँ और पीछे वालो की अपेक्षा से परिचय मे तथा इसी तरह दायें और बायें बैठे वालो की अपेक्षा से दक्षिण व उत्तर मे । इस तरह अपेक्षा भेद से मुझे अलग-अलग दिशा मे बैठा हुआ बतलाने मे कोई विरोध पैदा नही होता । एक ही वस्तु छोटी झोर बडी दोनो हो सकती हैं परन्तु उनसे वडी व छोटी वस्तु की अपेक्षा से । अतः विरोध की शका प्रकट करने मे शकराचार्य ने स्याद्वाद के सिद्धान्त को सम्यक् प्रकार से समझने का प्रयास नही किया प्रतीत होता है । तात्पर्य यह है कि स्याद्वाद न तो विरुद्ध धर्मवाद है और न सशयवाद । वह तो वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रकट करने वाला यथार्थवाद है । ४० जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होने वाला व नष्ट होने वाला और फिर भी स्थिर रहने वाला बताया गया है । " उत्पादयवदभौव्य युक्तं सत्" यह पदार्थ के स्वरूप की व्याख्या है | श्राश्चर्यं मालूम होता है कि नष्ट होने वाली वस्तु भला स्थिर कैसे रह सकती है, किन्तु स्याद्वाद ही इसको सुलझना देता है । ये तीनो पर्याये सापेक्ष दृष्टि से कही गई है । एक दूसरे के बिना एक दूसरे की स्थिति बनी नही रह सकती है । उदाहरण स्वरूप समझ लीजिये कि एक सोने का कडा है और उसे तुडा कर जंजीर बनाली गई तो वह सोना कड़े की अपेक्षा से नष्ट हो गया एक
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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