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________________ .३८ जन-संस्कृति का राजमार्ग दृष्टिकोण व हठधर्मिता का वातावरण मजबूत होने लगता है और वे ही विचार जो सत्य ज्ञान की ओर बढा सकते थे, पारस्परिक समन्वय के प्रभाव मे विद्वेषपूर्ण सघर्ष के जटिल कारणो के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । तो हम देखते है कि एकांगी सत्य को लेकर जगत के विभिन्न विचारक व मतवादी उसे ही पूर्ण सत्य का नाम देकर संघर्ष को प्रचारित करने मे जुट पड़ते हैं । ऐसी परिस्थिति मे स्याहाद का सिद्धान्त उन्हे बताना चाहता है कि सत्य के टुकडो को पकडकर उन्हे ही आपस मे टकराम्रो नहीं, बल्कि उन्हे तरकीब से जोड़कर पूर्ण सत्य के दर्शन की ओर सामूहिक रूप से जुट पडो। अगर विचारो को जोडकर देखने की वृनि पैदा नहीं होती व एकांगी सत्य के साय ही हठ को बांध दिया जाता है तो यही नतीजा, होगा कि वह एकांगी सत्य भी सत्य न रहकर मिथ्या मे बदल जायगा। क्योकि पूर्ण सत्य को न समझने का हठ करना सत्य का नकारा करना है। अत यह आवश्यक है कि अपने दृष्टि विन्दु को सत्य समझते हुए भी अन्य दृष्टि विन्दुओ पर उदारतापूर्वक मनन किया जाय तथा उनमे रहे हुए सत्य को जोडकर वस्तु के स्वरूप को व्यापक दृप्टियो से देखने की कोशिश की जाय । यही जगत के वैचारिक संघर्ष को मिटाकर उन विचारो को प्रादर्श सिद्धान्तो का जनक बनाने की सुन्दर राह है। सर्व साधारण को स्याद्वाद की सूक्ष्मता का स्पष्ट ज्ञान कराने के लिए मैं एक दृष्टान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ। एक ही व्यक्ति अपने अलग-अलग के रिश्तो के कारण पिता, पुत्र, फाका, भतीजा, मामा, भानजा प्रादि हो सकता है। वह अपने पुत्र की दृष्टि से पिता है तो इसी तरह अपने पिता की दृष्टि से पुत्र भी । ऐमे भी अन्य सम्बन्धी के व्यवहारिक उदाहरण प्राप अपने चारो ओर देखते है । इन रिश्तो की तरह ही एक व्यक्ति मे विभिन्न गुणो का विकास भी होता है। अतः यही दृष्टि वस्तु के स्वरूप मे लागू होती है कि वह भी एक साथ सतअसत, नश्वरअनवर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, क्रियाशील-प्रक्रियाशील नित्य-अनित्य गुणो वाली हो सकती है। जैसे एक ही व्यक्ति मे पुत्रत्त्व व पितृत्त्व दो विरोधी गुणों का
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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