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प्राक्कथन
श्रीमज्जैनाचार्य श्री गणेशलाल जी म० सा० श्रमण-सस्कृति के ज्योतिपुञ्ज है। उनके प्रवचनो का यह संग्रह 'जैन सस्कृति का राजमार्ग' श्राद्योपान्त देखा। जैन-दर्शन के तात्त्विक विवेचन के साथ-साथ जैन-संस्कृति का स्पष्ट एक प्रेरणादायक निरूपरण इन प्रवचनो द्वारा हुआ है। इन प्रवचनों मे स्पष्ट, सरल शैली मे ज्योतिपुञ्ज प्राचार्य श्री गणेशलाल जी महाराज ने अपनी साधना की अनुभव प्रणीत चेतना को अभिव्यक्त किया है । प्राचार्य श्री ने अपने जीवन की निस्पृह साधना द्वारा जो सत्यानुभव किया, उसी के उद्गारो का यह उपयोगी समुच्चय है। __भारतीय धर्मों और धार्मिक संस्कृतियो का उद्भव मनुष्य की भावना के निरन्तर उद्वेग 'के शमन के लिए ही हुआ है । आत्म-शुद्धि और आत्मलाभ का मूल प्राश्रय इतना ही है कि मनुष्य सत्य, शाश्वत नियमों के अनुसार अपना जीवनयापन करे और अविचल पूर्णत्व प्राप्त करे। इस प्रयास का एकमात्र प्राधार धर्म है, नियम-ज्ञान नहीं। नियम ज्ञान होते हुए भी मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियो के कारण अनियमित हो जाता है । अनियमित होने की मनुष्य की इस स्वाभाविक कमजोरी के निराकरण के लिए धार्मिक प्रेरणा की अावश्यकता रहती पाई है। समाज-शास्त्रियो को अभी यह जानना चाहिए कि मनुष्य ज्ञान और विद्या प्राप्त करते हुए भी 'पालन' के लिए क्षमतावान् किस प्रकार होता है । जीवन की सभी कोमलताएँ अनुभव से प्रसूत होती है और क्षमता का यह प्रसव धर्म-पालन द्वारा ही होता है ।
धर्म भावना अपने अत्यन्त सुघड़ स्वरूप मे श्रद्धा है । वुद्धि-प्रक्रिया जीवन के भोग का उत्तेजन तो करती है, परन्तु पूर्णतः शमन नही कर पाती। यह शमन तो धर्म भावना द्वारा ही हो पाता है। मनुप्य अनन्त और असकीर्ण शाश्वत जीवन की कामना करता है, जिसकी तृप्ति धर्म भावना