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________________ कर्मवाद का अन्तरंहस्य में प्राता है। प्रत कर्म और प्रात्मा का सम्बन्ध अनादि है क्योकि उसके प्रारम्भ की जानकारी ज्ञान सीमा के बाहर की बात भी है, लेकिन इनका सम्बन्ध शान्त है अर्थात् एक दिन दोनो का सम्बन्ध समाप्त होकर प्रात्मा अपने मूल रूप में पहुंच सकता है। अनादि चीज अनन्त ही हो, शान्त नहीं, ऐनी का व्यर्थ है क्योकि भूगर्भ मे सोना और मिट्टी युगो से साथ रहने पर भी एक दिन खोदकर अलग कर दिये जाते हैं, इसी तरह विकास के प्रयलो मे पररपर सम्बद्ध चेतन व जड़ भी पृषक हो सकते हैं। कर्मवन्धन के प्रधान कारणो का उल्लेख करते हुए जैन शास्त्रों मे कहा गया है कि मोह, अनान या मिथ्यात्व, यही सब से बडा कारण है नयोकि इसी के कारण रागद्वेष का जन्म होता है व तज्जन्य विविध विकारो से प्रात्मा कर्म से लिप्त हो जाती है । तत्त्वार्थ सूत्र मे कर्मवन्ध के कारण पर पहा गया है सिपापाय त्याज्जीव. फर्मरणो योन्यान् पुद्गलानादन्ते स बन्धः।" रागषात्मक कापाय परिगति से प्रात्मा कर्मयोग्य पुद्गलो को नव पहरण करता है तो वही दन्ध है तथा इसके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, पपाय और योग दताये गये हैं। यह उल्लेनीय स्यिति है कि कर्मवन्ध का मुख्य कारण गहर की प्रियाएं उतनी नही, जितनी प्रान्तरिक गावनाएँ मानी गई है । गरीर पर घाव करने की बाह्य क्रिया एक-सी होते हए भी छुरेवाज हत्यारे व सर्जन टॉक्टर के अध्यवसायो का जो अन्तर है, वही पार्मबन्ध घी मूल भित्ति है । "मन. एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयोः ।" श्रत धर्मवन्धन से बचने के लिए भावनानी की विगुद्धि की पोर सर्वप्रयम tणन दिया जाना चाहिए । रियानो मे अनासक्त भाव का प्रावत्य बनाने रे दिवारी का प्रभाव नहीं पड़ता। गैलेपी नामकी क्रिया मे तो अनासक्ति मण, मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण निरोष ही कर लिया लता है। यामंदद से नर्दधा मुक्त होने के लिए नये पाने वाले कर्मो को रोकना करता है। इस रोपने वो नंबर तथा जिन योतो से कर्म पाते हैं, उन्हें ।
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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