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________________ जैन-संस्कृति का राजमार्ग परमात्मरुप मे पहुंच जायगा। (५) श्रायुकर्म-यह प्रात्मा को जीवन की सीमाप्रो मे बांधता है और बेडी की तरह उसके स्वातत्र्य गुण पर प्राघात करता है । (६) नामकर्म-प्रात्मा के अमूर्त गुण को घात करके यह चित्रकार की तरह नाना शरीरो के रूप बनाता है और उन्हे विभिन्न रूपो मे रगमच पर लाता है। (७) गोत्र कर्म-प्रात्मा की समान शक्ति को विषम बनाने का काम यह कर्म करता है । बाह्य रूप से देश, जाति, गोत्र गत भेदो को यही पैदा करता है। (८) अन्तराय कर्म-मात्मा के असीम पौरुप का यह कर्म अवरोध किये रहता है । मन्त्रबद्ध सर्प की तरह इस कर्म के वश मे प्रात्मा अपने पराक्रम को प्रकट करने मे अशक्त बना रहता है । उपरोक्त कर्मो मे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म ये चार प्रात्मा के मूलगुणो का घात करने से घाती तथा शेष चार अघाति कर्म कहलाते हैं। रक्त मे फैले हुए रोग कीटाणुमो को नष्ट करने के लिए जैसे उसके सफेद करणो को पुष्ट किया जाता है, उसी तरह जो आत्माएं अपने पौरुप व सयम की धवलता एकत्रित करते हैं, उस शक्ति द्वारा कर्मों की शक्ति को विनष्ट कर देते है और ज्यो-ज्यो कर्मों की शक्ति नष्ट होती चली जाती हैं, प्रात्मा के वे गुरण अधिकाधिक स्पप्टता से प्रकट होते चले जाते हैं। म प्रकार कर्म-जाल को पूरी तरह काट देने पर प्रात्माएं सिद्ध, वुद्ध, युक्त और अजर-अमर हो जाती है। यहां यह समझ लिया जाय कि प्रात्मा एक बार पूर्ण सूत्र मे होने के बाद फिर से कम से सम्बद्ध नहीं हो सकती, क्योकि मुक्त अवस्था मे उसकी क्रियाएं समाप्त हो जाती है। फिर कारण के अभाव मे कमंबन्ध के कार्य का होना भी सभव नही माना जा सकता। जैन धर्म अवतारवाद में विश्वास नहीं करता, जिसके अनुसार मुक्त भी पुन अवतार धारण कर ससार
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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