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________________ कर्मवाद का अन्तरंहस्य कर्म के विभिन्न भेदो को समझने के पूर्व यह समझना जरूरी है कि वे भेद कसे पैदा होते है, जब कि कार्मण वर्गणा के पुद्गल तो एक-से ही होते है ? जिस प्रकार भोजन प्राभाशय मे जाकर पाचन क्रिया द्वारा विभिन्न रूपो मे बदल जाता है, उसी प्रकार जीवन की भावना के अनुसार इन कामण पुद्गलो मे भी विभिन्न प्रकार की शक्ति पैदा हो जाती है और वे विविध शक्तियां अत्मा की विभिन्न शक्तियो को आच्छादित कर देती है। प्रत' प्रात्मा की विभिन्न शक्तियो, गुगो को प्राच्छादित करने के कारण उन गुणो के आधार पर कर्मों का वर्गीकरण किया गया है। इस तरह कर्मो के भेद पाठ माने गये हैं (१) ज्ञानावरणीय कर्म-जो कर्म सर्व पदार्थो को स्पष्टतया जानने की प्रात्मा की शक्ति को हक लेता है तथा इस प्राच्छादन के गाढेपन के अनुसार ही प्रात्मा की ज्ञानशवित न्यूनाधिक हो जाती है। ज्यो-ज्यो प्रावरणो की परते पटती जायंगी, ज्ञानशक्ति अधिकाधिक प्रकाशित होती जायगी। (२) दर्शनादरणीय फर्म-यह प्रात्मा की दर्शन शक्ति का निरोधक है पोर उस द्वारपाल की तरह है जो इच्छक को राजा के दर्शन करने से रोक देता है। (३) वेदनीय कर्म-मात्मा के प्रवाध सुख को ढंककर यह उसे वेदना (सुख दुःखकर) मा अनुभव बराता है । यह वर्म गत से सनी हुई छुरी को जीभ से चाटने के समान बताया गया है । (४) मोहनीय धर्म-मदिरापान की तरह इसके द्वारा प्रात्मा की विवेक रावित ढंक जाती है अर्थात् प्रात्मा-परमात्मा के विषय में तथा जड. चेतन के भेद विज्ञान को व तदनुसार सम्यक प्राचार स्प विवेक को पाच्छादित करता है और वह दिवारो द वषायो मे फंस जाता है। यह प्रात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप से ही विस्मृत कर देता है, अतः यह यात्म विकास पासव से जारी है। ज्योही यह पूर्णतया वटेगा, मात्मा अपने मूलरूप.
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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