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________________ जंन अहित्ता और उत्कृष्ट समानता वह मूठ न बोले और सत्य बोले । दोनो पहनुओ का पालन जरूरी होता है । अगर कोई झूठ तो न बोले लेकिन सत्य बोलने का अवसर पाए और मौन रह जाए तो उसको पाप क्या कहेगे ? सत्य के प्रतिपादन के समय कोई मौन रसे तो वह अव्यक्त तीर पर ही सही किन्तु असत्य का प्रतिपादन करने वाला ही कहलायगा । उसी प्रकार हिसा से तो कोई निवृत्ति ले ले किन्तु अहिंसा मे प्रवृत्ति न करे, जीवन-सरक्षण की ओर लक्ष्य न बनाए तो उसे भी हिसक नहीं कहा जा सकता । अहिसा की प्रवृत्ति ही अहिंसा के ममुज्ज्वल स्वरूप को, विशेष रूप से सामाजिक जीवन मे प्रकाशित कर सकती है । एक ओर अहिसा हिसा से निवृत्ति करना सिखाती है तो दूसरी घोर अन्याय, अत्याचार, शोपण, दमन और दुर्व्यवहार का प्रतिरोध करके असहाय प्राणो को रक्षा पर बल देती है और पहले से भी दूसरा कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। क्योंकि प्रारणो को आप न मरने दे-यह ठीक है लेकिन उनके अस्तिव मे यदि उन्हे सुग्वपूर्ण बनाने की श्रद्धा न बनाई जा सके तो वह अहिंसा का पालन होना नहीं कहलाएगा । प्रारणी वचे, उनकी रक्षा हो और उनके जीवन के समुन्नत बनने की स्थिति बन सके-ये सभी पतंव्य अहिसक के होने चाहिए। अव अहिंसा के इन दोनो पहलयो के महत्त्व पर इस दृष्टि से विचार कीजिए कि किसी भी प्राण को कप्ट न दिया जाए, बल्कि उन प्रारणो को वहाँ तक वन सके अग्ना सरक्षण भी दिया जाए। अहिसा की इस साधना मे सापक क मन, वचन एव फाया तीनो शुद्धिपूर्वक नियोजित होने चाहिए । में किसी के मन, वचन व काया को कप्ट न दू-यह तो हुई एक बात, लेकिन मग जा अहिग धर्म का पालन हो, वह मेरे शुद्ध मन द्वारा, वचन द्वारा तथा कर्म के द्वारा पूर्ण होना चाहिए । कोई काम दिखावे के लिए कहा जा सकता है या किया जा सकता है लेकिन अहिसा की साधना दिखावे या लोक-व्यवहार ने ऊपर अन्तर्हदय मे पैठनी चाहिए क्योकि अन्तर की प्रेरणा व सद्भावना ने जो वचन कहा जाएगा या कर्म किया जाएगा, उसमे वास्तविकता हामी तथा वही कार्य मन, वचन व काया की शुद्धि पर आधारित होगा।
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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