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________________ जन-संस्कृति का राजमार्ग अत अहिंसा की आराधना के लिए मन, वाणी और कर्म तीनो मे एक माथ शुद्धि की आवश्यकता है, या यो कहे कि इन तीनो मे अहिंसा वृत्ति के महज प्रवेश पर ही अहिमा धर्म का सुचारु रूप से पालन किया जा सकता है। कई भाइयो का जा यह कथन है कि शरीर से मारने पर ही हिंसा होती है और इसलिए वे कहते हैं कि मन जाए तो जाने दे, मत जाने दे शरीर । न खेंचेगा कमान तो, फंसे लगेगा तीर ।। किन्तु जैसा ऊपर बताया जा चुका है - यह कयन केवल एकागी य बाह्य दृष्टिकोण को प्रकट करता है । जैन शास्त्रो का वचन है कि शरीर की हिंसा से भी मन की हिंसा वडी होती है, क्योकि शारीरिक हिना का आधार भी मानसिक हिंसा ही होती है । इसके लिए शास्त्रो मे एक उदाहरण पाया है कि मानसिक हिंसा से आत्मा का कितना पतन हो सकता है । उदाहरण यह है कि समुद्र मे एक विशालकाय मगरमच्छ था । उसका मुंह जव खुला रहता तो छोटे-बडे कई मच्छ उसमे घुसते व निकलते रहते घे । उस समय उस विशालकाय मगरमच्छ की आँख पर बैठा हुमा एक सदुल मच्छ जो चावल के दाने के बराबर होता है-सोचता है कि इस मगरमच्छ के मुख मे कितने छोटे-बडे मच्छ स्वत ही जा रहे है किन्तु यह कितना मूर्ख है कि उन्हे निगल नहीं जाता। यदि मेरी ऐसी दशा होती तो मैं इन सव मच्छो को किसी भी हालत मे अपने मुह से बाहर नहीं निकलने देता । इन्ही सकल्प-विकल्पो मे बहता हुआ तन्दुल मच्छ वहां उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो कहा गया है कि उसको गति सातवी नरक मे होती है । अभिप्राय यह है कि केवल मानसिक हिंसा के कारण उन छोटे से प्राणी की भी ऐसी गति हुई । इसी प्रकार वाणी का घाव भी त नवार फा पाव माना गया है । अत आप लोगो को गभीर चिन्तन करना चाहिए फी अपने पापको अहिंसा धर्म के साधक कहने के पहले अपने जीवन को कितनी अद्भुत तैयारी होनी चाहिए ।
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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