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________________ १११ जैन सिद्धान्तो में सामाजिकता हमारे यहाँ विकास की दृष्टि से पांच भागो मे बांटा गया है, एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक और मनुष्य पचेन्द्रियो मे श्रेष्ठ प्राणी है । इस मूल प्राध्यात्मिक धारणा को पुष्ट करते हैं जैनों के अहिंसा और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त जो प्राचार और विचार की दृष्टि से मनुप्य मे एकता और समता पंदा करता है। जब निद्धान्तो के मूल मे ही मानव समानता का लक्ष्य सामने रखा गया तो वह साफ था कि उसका सुप्रभाव समाज की हर दिशा मे पडता । इसलिए जनधमं ने कृत्रिम वर्ण व जाति भेद को सर्वथा तिरस्कृत किया और यह विचार फैलाया 'कि मनुष्य की समानता के प्रागे ये सब परम्पराएं प्राघातकारी और विघ्नकारी हैं । जैनधर्म जाति या वर्ण के प्रचलित प्राधारों में विश्वास नहीं करता । कोई भी व्यक्ति इसलिए वडा या छोटा नहीं है कि दह प्रमुक वर्ग या जाति मे पैदा हुमा है। वर्णवाद को गम्भीर चुनौती देते हुए महावीर ने उद्घोष किया कि वर्ण से कोई क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र माना भी जाय तो उसका प्राधार उनके द्वारा किये जाने वाले कर्म ही होगे । यदि कोई वर्ग से ब्राह्मण है और कर्म गूद्र के करता है तो जैन सिद्धान्त उसे ब्राह्मण मानने को तैयार नहीं, दह शूद्र की ही श्रेणी मे गिना जायगा । मी तरह जाति या कुलो को ऊंच नीचता भी मनुष्यो फी ऊंच-नीचता नहीं हो सकती। महावीर ने सले तौर पर वर्ण, जाति और कुलो के भेद-भावो के माधार पर खडे हुए समाज को रलवारा प्रौर उसे सर्व समानता का नवीन माघार प्रदान किया। उन्होने कहा कि पमं किसी का तिरस्कार करना नहीं सिखाता, भेद माद की सीटिया नही गहता । बालाएं नद एक है, मनुष्य एप हैं तो उनमें कर्म के प्रनाग भेदभाव कौन सा ? जाति-पाति या वि छुपान, ये मव प्रगानुपिक भेदभाव है। सभी मनु पो के एक सी इन्द्रियां हैं, विवेक और अनुभव की दृष्टि है, हो सकता है कि वातावरण के अनुसार इन गक्तियों पे दिशाम मे अन्तर हो, किन्तु उनकी मूल धिति में जब कोई भेदभाव नहीं है तो कोई कारण नहीं कि एद कल या गति में जन्म लेने मे एक मनुप्य
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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