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________________ ११० जैन- संस्कृति का राजमार्ग साधारण रूप से पैदा नही हो सकेगी । इसलिए समाज मे समान और सम्यक् वातावरण पैदा हो तथा सामाजिकता की भावना का प्रमार हो, यह निवृत्ति के प्रत्यक्ष लक्ष्य का परोक्ष साधन माना गया । क्योकि यह ससार में प्रवृत्ति कराने की बात नही थी वरना सामाजिक सुधार द्वारा निवृत्ति के लक्ष्य को मस्तिष्को मे स्पष्ट कराने का अथक प्रयास था । यही कारण है कि उस श्रमानवीय युग मे श्री महावीर ने जो समान मानवता का अलख जगाया और नया जागरण पैदा किया वही महावीर का प्रमुख महावीरत्व है । मैं अभी आपको विस्तार से बताऊँगा कि महावीर के सिद्धान्तों में किस तरह समानता का अनुभाव कूट-कूटकर भरा है और ऐसा लगता है कि इस तरह एक लक्ष्य के लिए महावीर ने चतुर्मुखी प्रयास किये । एक दृष्टि से उन्होने यह सिद्ध किया कि सारे प्राणी एक समान हैं, एक समान शक्ति के धारक हैं और समान सम्मान के अधिकारी हैं और इस धारणा को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उन्होने न सिर्फ तत्कालीन समाज मे ही एक क्रान्ति की, बल्कि क्रान्ति की बलवती ध्वनि को युग-यु के लिए गुंजायमान कर गये । जैन सिद्धान्तों मे सामाजिकता की प्रभावशाली प्रेरणा भरी होने की यही मुख्य पृष्ठ भूमिका है । सबसे पहले जैन सिद्धान्तो मे श्राध्यात्मिक दृष्टि से यह बताया गया है कि निश्चय नय से सभी प्रात्माएँ समान हैं । सभी अपना समान सर्वोच्च विकास साध सकती हैं और सभी श्रात्माओ मे अनन्त शक्ति विद्यमान है । अनन्त आत्माएं हैं उन सब का एक ही लक्षण है और जो भेद दृष्टि है वह सिर्फ कर्मों के कारण ही है । ये कर्म भी इन्ही श्रात्माओ की उपज होते है । श्रात्माएँ ही स्वयं कर्म करती है और उनका फल भोगती हैं, इस व्यापार में वे किसी भी अन्य शक्ति द्वारा प्रतिवन्धित नही होती । जंन मान्यता ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता इसीलिए नही माना है कि यह सिद्धान्त श्रात्माओ में भेद करता है श्रोर ईश्वरत्व को श्रात्मा के सर्वोच्च विकास से अलग मानत है जो समानता की दृष्टि से सर्वथा अनुचित व अग्राह्य है । प्राणीमात्र कहे
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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