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________________ जैन-संस्कृति का राजमार्ग आशय समस्त प्राणियों को जय बोलता है। मस्तिष्क की जय बोलने में सभी अंगों की स्वाभाविक जय समझी जाती है, क्योकि सभी अगो का पारस्परिक सहयोग के नाते कदाचित अभिन्न सम्बन्ध है। मस्तिष्क का अस्तित्व ही इस बात पर है कि उदर रस बनाकर भोजन पचाता है या नहीं, पर और हाथ इधर-उधर सब जगहो में भटक कर उसे अनुभव लेने का अवसर देते हैं या नही, अन्यथा अन्य अगो के सहयोग के बिना मस्तिष्क अपनी उन्नत श्रेणी तक कभी नहीं पहुंच सकता। सभी अंगो के सहयोगपूर्ण सम्मिलित कार्य में ही शरीर की सुन्दरता तथा स्वस्थता का सद्भाव हो सकता है । तात्पर्य यह है कि समाज के सहयोग से ही व्यक्ति का विकास होता है और वह उन्नत अवस्था को प्राप्त होता है। जैसे सभी अंगो के कारण से मस्तिष्क विचारक्षम व गभीर चिन्तन करने वाला होता है, उसी तरह समाज के सरल सौहार्द्रमय वातावरण मे ही महान् विभूतियो और महात्माप्रो का जन्म होता है और जैसे मस्तिष्क अधिक विचारक्षम होने के पश्चात् अन्य अगो का विशेष रूप से रक्षण व पोपण करता है, उसी प्रकार वे महान विभूतियां और महात्मा अपना सब-कुछ समाज के हितार्थ बलिदान कर देते हैं । किन्तु ये महान् विभूतियां जब मुक्त हो जाती हैं, निवारण प्राप्त कर लेती हैं, तब वे कवि के शब्दो मे 'जगत् शिरोमणि' हो जाती हैं और फिर ये 'शिरोमरिणयों' अपने शुभ्र एव धवल प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् को पालोकित कर देती हैं। सभी भगो के समुचित सहयोग का प्रश्न समाज के निज के सामूहिक विकास के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। जब तक अन्न, वस्त्र प्रादि जीवनोपयोगी पदार्थों का समाज मे प्रत्यावर्तन होता रहता है, तब तक सामाजिक जीवन में शान्ति रहती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सभी अंगो की सहायता से शरीर के पोषक तत्व खून द्वारा शरीर के समी भागो मे पहुँचाये जाते हैं। किन्तु जब यह प्रत्यावर्तन चन्म हो जाता है या रुक जाता है, चाहे वह समाज में हो या शरीर मे, तभी स्वास्थ्य विगउने लग जाता है। जब समाज की उपेक्षा करके व्यक्ति के हृदय में मगह को
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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