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________________ ५० जैन-संस्कृति का राजनार्ग जीव पर अच्छा बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे नेगेटिव और पोजिटिव तत्व जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनसे विजली पैदा नहीं होती, किन्तु जब ये दोनो तत्व मिल जाते हैं तो एक शक्ति-विजली पैदा हो जाती है। आज के विज्ञान ने तो इस तथ्य को एक नही कई प्रयोगो से सिद्ध कर दिया है। जड़ स्वय गतिशील नहीं होता किन्तु चेतन द्वारा सम्बन्धित होने पर प्रभावशील हो जाता है। एक मदिरा की बोतल भरी है पर उस रूप मे वह मनुष्य पर कोई असर नही कर सकती, किन्तु ज्यो ही मनुष्य उसे पी जाय, उसका असर साफ होने लगेगा और आपको मदिरा की शक्ति स्पष्ट दीखने लगेगी। किन्तु यह ध्यान मे रखने की कोई चीज़ है कि उस शक्ति को उत्पत्ति मदिरा और मनुष्य के सम्पर्क से हुई। प्रतः कर्मफल का चुनाव जीव और कर्म पुद्गल के सम्पर्क का ही परिणाम है, उसके बीच ईश्वर को डालना तो उसको ईश्वरत्व से छुटाकर सासारिकता के पचडे मे डालना है। क्योकि अगर ईश्वर को फलदाता माना जाय तो उसे सारे सासारिक मनोविकारो मे पाना पड़ेगा, कारण कि सृप्टा भी तो वही माना जाता है। वही शेर को भी पैदा करे और बकरी को और उसी की प्रेरणा से गेर अपने शिकार को ढूंढता चलता हुप्रा बकरी के पास पहुंचा जाय और फिर उसी की प्रेरणा से वह उसे खा जाय, तब फिर ईश्वर खडा होकर शेर को बकरी की हत्या का कुफल दें, ऐसा व्यवस्थाक्रम समझ में न आने लायक ही क्रम प्रतीत होता है । ईश्वर का स्वरूप रागद्वेप रहित, विकारहीन, परम दयालु, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान माना गया है, परन्तु अगर उभे अनुग्रह, निग्रह करने वाला, ऊंच-नीच पैदा करने वाला व उन्हे कर्तव्याकर्तव्य दोनो की प्रेरणा देने वाला और फिर उनके लिए ही दड-विधान करने वाला माना जायगा तो इस सृष्टि के सारे दुखो, सारे पापो और सारे विकारो का उत्तरदायित्त्व उसके ही मत्थे मढा जाना चाहिए । यही नही किन्तु अपनी ही रचना का फल निर्दोष प्राणियो को भुगनाने की एवज मे उसे क्रूर भी कहा जाना चाहिए। दूसरे अगर ईश्वर भी कर्मानुसार ही फल देता है तो कर्मों का प्राधान्य ही हुआ, ईश्वर का ईश्वरत्व ही क्या ? किन्तु वास्तव
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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