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जैन अहिंसा और उत्कृष्ट समानता "जय जगत् शिरोमणी, हु सेवक ने तू धणी " प्रार्थना मे कहा गया है कि हे जगत के शिरोमणि, हे प्रभु, तुम्हारी जय हो | मै तुम्हारा सेवक हूँ और तुम मेरे स्वामी हो । मैं आपसे पूर्श कि पया हमारे कहने से ही परमात्मा की जय हो और हमारे न कहने मे उसकी जय नही हो ? आपको यह प्रश्न कुछ अटपटा लगे किन्तु उतर स्पष्ट है । हमारे जय कहने या न कहने का परमात्मपद पर कोई असर नहीं पड़ता और न ही जिस श्रेणी मे सिद्ध विराजमान है, उनका हम सासारिक प्राणियो से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध है। यह जय तो हम अपने आत्मिक-जागरण के लिए कहते है कि उनका प्रदर्शित पथ हमारे अन्तर् मे रम सके और हम उनकी जय भी इसलिए कहते है कि वे पूर्ण पुरुप है । अपूर्ण की जय नही कही जाती । पूर्ण विजेता ही जयवान् होता है । जिस तरह कुम्हार का कच्चा घडा या रसोई मे रखा कच्चा सामान तृपा व क्षुवा सन्तुष्टि मे सहायक न होकर पक्का घडा व पक्वान्न ही वैसे हो सकते है।
तो उस प्रभु की जय इसलिए कहते है कि हम उसके प्रति वफादार बन सके । सेवक अगर स्वामी के प्रति वफादार न बन सके तो फिर उमका सेवकत्व ही क्या ? फिर परमात्मा का सेवक होना तो कोई छोटी बात नहीं है । साधारण स्वामी को तो अप्रत्यक्ष तरीके से छला भी जा सकता है लेकिन त्रिकाल ज्ञाता मर्वज्ञ प्रभु के प्रति वफादाने का अर्थ है कि अपने जीवन में एक निश्चित विधि से निश्छल साधना की जाय और इस माधना का प्रमुख रूप है कि परमात्मा के सभी सेवको की इस सृष्टि मे हम समानता की स्थिति पैदा करें । सभी परमात्मा के सेवक है-फिर उनके बीच