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जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा ?
सुविधि जिनेश्वर वन्दिये हो,
वन्दत पाप पुलाय ।
यह सुविधिनाथ भगवान की प्रार्थना है। इसमें कवि विनयचन्द जी कहते हैं कि हे भव्य पुरुपो, परमात्मा को नमस्कार करो, क्योकि नमस्कार करने से तुम्हारे सकल पाप पुज नष्ट हो जायेंगे ।
लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि जब परमात्मा दृष्टगोचर ही नही होता तो किसे वन्दन करें ? वह परमात्मा कहाँ है, कैसा है ? आप लोग सोचते होगे कि जब परमात्मा सम्मुख हो तभी तो उसके दर्शन हो सकते हैं, उसको वन्दन किया जा सकता है किन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या परमात्मा के दर्शन इन चर्मचक्षुप्रो से सम्भव है ? स्वयं तीर्थंकर के सम्मुख होने पर भी उनके दर्शन इस तरह नही किये जा सकते । उत्तराध्ययन सूत्र मे कहा है"न हू जिरण अज्ज दिस्सई"
भगवान् महावीर स्वय बैठे हुए हैं और गोतम से कह रहे हैं, है गौतम ! तुम्हे श्राज जिन नही दिखाई देते । यह बडी गहन बात है । भगवान् महावीर स्वय बैठे हुए हैं और यह कहते हैं कि तुम्हे जिन नही दिखाई देते' इसका अर्थ क्या ? यही कि चर्म चक्षुत्रो से दीखने वाला परमाणुत्रों का धमान है । जिनत्त्व का जो स्वरूप है वह जिन बने विना नही दीखता । तः उन्होने कहा कि जिन बने विना जो स्परूप देखते हो, वह जिन नहीं किन्तु अन्य दीखता है । कई लोग कहते है - चलो भगवान् के दर्शन करने चलें किन्तु वह भगवान् के आत्मिक स्वरूप नही, शारीरिक रूप की भी मूर्ति प्रतिकृति मात्र है । जब कि महावीर का कथन है कि स्वयं भगवान् समक्ष उपस्थित हो फिर भी दिव्य ज्ञान चक्षुत्रो के बिना इन चर्म चक्षुनो से उनके दर्शन नही हो सकते तो फिर मूर्ति के दर्शनों से क्या होगा ?