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जैन - संस्कृति का राजमार्ग
सबसे प्रमुख यही उपाय है कि चारो ओर फैला हुआ विचारो का विषैला विभेद शान्त किया जाय और एक दूसरे को समझने के उदार दृष्टिकोण का प्रसार हो सके ऐसे व्यापक वातावरण का सर्जन जैनदर्शन के स्याद्वाद सिद्धान्त की सुदृढ प्राधारशिला पर ही किया जा सकता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति व सामूहिक रूप से विभिन्न राष्ट्र व समाज इस स्याद्वाद दृष्टि को अपने वैचारिक क्रम मे स्थान देने लगे तो विश्व शान्ति की कठिन पहेली सहन ही मे शान्ति व सद्भावना से हल की जा सकती है । इस महान् सिद्धान्त के रूप मे जैनधर्मं विश्व की बहुत बडी सेवा बजाने मे समर्थ है, क्योकि अन्य दर्शनो की तरह जैनधर्म कभी भी साम्प्रदायिकता के बन्धनो मे नही वधा और इसलिए अपनी व्यापकता व विशालता को निभाता हुआ विश्व के समस्त प्राणियो के हितसम्पादन का महान् सन्देश गुजायमान करता रह सका | जैनदर्शन के अन्य सिद्धान्तो की विवेचना अन्यत्र की गई है, किन्तु यदि हृदय स्वरूप इस एक सिद्धान्त पर ही पूरा-पूरा ध्यान दिया जाय तो कई विषय समस्याएं सुलझ जायेंगी और तब मानवता के विकास का मार्ग निष्कंटक हो सकेगा ।
उपसंहार रूप मे मुझे यही कहना है, जो कि इस शास्त्रवाक्य मे कहा गया है- "थि सत्येण परेण परं, नत्थि असत्य परेण परं"
सत्य का साक्षात्कार ही जीवन का चरम साध्य है । जीवन उन श्रनुभवो व विभिन्न प्रयोगो का कर्मस्थल है, जहाँ हम उनके ज़रिये सत्य की साधना करते हैं, क्योकि सत्य ही मुक्ति है, ईश्वरत्व की प्राप्ति है । जीवन के आचार-विचार की सुघडता व सत्यता मे व्यक्ति, समाज व विश्व की गाति रही हुई है तथा इसी चन्द्रमुखी शान्ति के शुभ्र वातावरण मे ऊँचे-से-ऊँचा श्राध्यात्मिक विकास भी सबके लिए सरल वन सकता है । श्रत विचारों की उदारता, पवित्रता शान्तिपूर्ण प्रेरणा की जागरुकता के लिए श्राज स्याद्वाद के सिद्धान्त को वडी वारीकी से समझने, परखने व ग्रमन मे लाने की विशेष श्रावश्यकता था पड़ी है, जिसके लिए मैं भाशा करूँ कि सब तरफ से उचित प्रयास अवश्य किये जायेंगे । - महावीर भवन, बारादरी, चांदनी चौक, दिल्ली