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________________ SHREE JAIN JAWAHAR PUSTAKALAYA 5 PIER) [ पहिचान जाते है किन्तु छोटे-छोटे प्राणियों को न मारना या क्लेशित न करना विवेक का काम है । मेन महिला औरउत्कृष्ट समानती H · इसके बाद हिंसा की व्याख्या मे न सिर्फ प्राणियो की काया को कप्ट देना हो सम्मिलित है बल्कि उनके मन, वचन, श्वासोच्छ्वास व आयुष्प तक का व्याघात करना या कम करना भी हिसक कार्यों मे गभित है यह बहुत बारीक बात है कि किसी के मन और उसकी वाणी पर भी अपने त्रियाकलापों द्वारा किसी तरह का व्याघात न पहुँचाया जाए । हिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि अगर इससे पूरे तौर पर बचना चाहे तो सासारिक जीवन के निर्वाह मे कटिनाइयाँ उपस्थित हो जाएँगी । इसलिए जैनधर्म में इसके लिए दो प्रकार के धर्मो का उल्लेख किया है कि साधु तो सभी प्रकार की हिंसा से अपने प्रापको बचाए किन्तु श्रावक (गृहस्थ ) फो भी कम-से-कम स्थूल हिंसा के कार्यों से तो अलग रहना ही चाहिए । जहाँ साधु के पहले महाव्रत मे सभी प्रकार की हिंसा का त्याग होता है, वहाँ श्रावक के पहले श्रणुव्रत के निम्न प्रतिचार बताये गये है, - - १ क्रोधवश किसी भी सजीव ( एकेन्द्रिय के सिवाय सभी इस जीव होते है ) को कठिनतापूर्वक बांधा हो, २ उसे घायल किया हो, ३ उनका चर्म-छेदन किया हो, ४ उन पर अधिक भार लादा हो, ५ उनका अन्न-पानी 'छुडाया हो । प्रकार के हिंसक कार्य करना श्रावक के लिए वर्जित है तथा इनमें से कोई कार्य उसमे क्रोधवश, प्रमादवश या अन्य रीति मे हो जाए तो उसके लिए उसे प्रतिक्रमण के रूप में प्रायश्चित्त करना होता है । -- यह स्पष्ट है कि एक जैन श्रावक को भी कम-से-कम अनावश्यक हिसा नहीं करनी चाहिए और धीरे-धीरे उससे भी अपने ग्रापको बचाते हुए साधु-धर्म ती श्रोर उन्मुख होना चाहिए । एक सद्गृहस्थ के नाते उसके पास जितने भी पशु या नौकर-चाकर हो, इन प्रतिचारो मे स्पष्ट हो जाता है कि उनके साथ उसका कितना नहृदय व्यवहार होना चाहिए। क्योकि श्रावक मी प्रपने मन, वचन व काया से भी किसी प्रकार उनके प्राणो को क्लेशित नही करना चाहिए । थाप इस बात पर ध्यान दे कि ग्रहिसा साधना की
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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