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जैन-संस्कृति का राजमार्ग
है । अशुभ कर्मों से पाप का बंध होता है और दुःखदायक परिणाम देता है । उसी तरह शुभ कार्यों से पुण्य का बघ होता है और वह सुग्वद फन्त देता है तथा पुण्यानुवन्धी पुण्य प्रकृति मे श्रात्मिक साधना मे भी सहायक होती हुई वीतराग प्रवस्था के गुण स्थानो में भी रहती है लेकिन मोक्ष की दृष्टि से वह पुण्य प्रकृति भी त्यागनी पड़ती है और पापानुवन्वी पुण्य प्रकृति मे संसार बढाने में सहायक होती है । इनके चक्कर से श्रात्मा जड़ से सम्बन्धित ही रहती है, जड से छूटकर मुक्ति की मंजिल तक नही पहुँच सकती ।
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अशुभ लगावट श्रात्मा के साथ होती है उसे श्राश्रव तत्व कहा है श्राश्रव तत्व से श्रात्मा की मलिनता बढती रहती है और वह ससार के कीचड़ मे अधिक से अधिक दुर्दशाग्रस्त होकर फँसता रहता है। शुभ योग तथा योग निरोध को संवर कहा है । यद्यपि सवर तत्व आत्मोत्यान में सहायक होता है किन्तु उसी तरह जिस तरह नाव नदी को पार करने में सहायक होती है । शुभ कर्मों से शुभ संयोग मिलते हैं और श्रात्मा को ज्ञान उद्बोध मिलता है तथा उसमे मुक्ति हित पराक्रम करने की भावना जागती है लेकिन आत्मा को मोक्ष प्राप्ति तभी होगा जब शुभ योग (पुण्य) भी श्रात्मा छुटकारा प्राप्त कर लेगी। क्योकि नदी नाव से जरूर पार होगी किन्तु पार करके किनारे पर पहुंचने के लिए नाव का सहारा भी छोड़ देना पड़ेगा । उसी तरह पुण्यतत्त्व मुमुक्षु श्रात्मा को ससार से वैराग्य लाने में सहायता करेगा किन्तु मुक्ति मे पहुँचाने के लिए आत्मा को पुण्य का श्राश्रव भी छोड़ना ही पड़ेगा ।
संलग्न कर्म पुद्गलो से श्रात्मा को छुटाने वाला तत्व है निर्जरा तत्व । निर्जरा का अर्थ है कर्म क्षय। जहां पिछले तत्व शुभ व श्रशुभ कर्मों की उत्पत्ति करते हैं वहाँ इस तत्व द्वारा कर्मों का नष्ट करना है । जब साधना श्रीर त्याग की उत्कृष्ट सरणियों मे श्रात्मा विहार करता है एव सासारिकता की गृहिणो से बहुत ऊपर उठकर अपने मूल स्वरूप सत् चित् श्रोर श्रानन्द मे तल्लीन हो जाता है तो सभी के प्रकार कर्म क्षय होने लगते हैं अर्थात्