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________________ अपरिग्रहवाद याने स्वामित्त्व का विसर्जन स्पष्ट करूं उससे पहले गृहस्थो के ५वे अणुव्रत व ६वें शिक्षावत पर कुछ रोगनी डाल दूं। गृहस्पो-घावको के ५वे अणुव्रत मे पांच प्रकार के परिग्रह को सीमित करने व उनमे यधागक्य दूर हटते जाने के सम्बन्ध मे प्रतिमाएं की जाती है(१) खेत घर प्रादि का परिमाण-जिसमे मुस्यतः समस्त अचल सम्पत्ति का समावेग हो जाता है । (२) स्प्यक रवर्ण का परिमाण-इसमे धातु व मुद्रा सम्बन्धी सम्पत्ति का समावेश किया गया है। (३) धन प्रौर धान्य का परिमाण-इसमे धातु व मुद्रा के अलावा तथा घर विखरी सामग्री के सिवाय समस्त चल सम्पत्ति को ले लिया गया है। (४) दुपद व चोपद का परिमाण-इसमे नौकर-चाकर व पशुप्रो पा पग्मिाण करने की बात रखी गई है। (५) घर बिखरी का परिमाण-पर नामग्री को इस प्रतिचार में शामिल किया गया है। इन पांचो प्रतिचारों में करीब-गारीव सभी प्रकार की सम्पत्ति का मावेश हो जाता है, किसी प्रकार की सम्पत्ति हटती नहीं। अब थावक को इस व्रत का प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति के विषय में मर्यादाएं निर्धारित पर लेनी चाहिए कि मुकगुरु परिणाम में ही समुक-अमुक प्रकार की सम्पनि का रामिद वह रोगा वरना उस मर्यादा से उपर प्राप्त होने वाती सम्पत्तिको विजित कर देगा। मारकाएं निरित - द प्रनिनाएँ दर तो हो र ही है। एक तोह कि दिन गत ir: रातो मतो के र नो - बन्ध कमी प्रकार रोना निनार में पांचव द्रन वा
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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