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________________ ६७ अपरिप्रहबाद याने स्वामित्व का विसर्जन से करना संभव नहीं हो सकता । भगवान महावीर ने भी जब दीक्षा ली तो उन्होने मारे वस्त्राभरण त्याग कर अपने गरीर पर एक मात्र वस्त्र ही रखा पा, उसे भी बाद मे त्याग दिया । क्या भगवान महावीर प्रापसे कम सुकोमल थे? अरे, वे तो राज्य के महान् वैभव मे अपार सुख-सुविधाम्रो के बीच रहने वाले राजकुमार धे, फिर भी कोई ममत्त्व उन्हे बाँध नही सका और प्राप पाहते हैं कि 'हमारा निभाव सम्पत्ति के बिना कैसे हो ?" पर मैं पूछता हैं कि क्या वहिने मोती के हार पहने विना जीवित नहीं रह सकती, जो काटो घोघो को मारकर प्राप्त किये जाते हैं ? रेदामी और सुन्दर वस्त्रो की जगह यदि खादी पहनी जाय तो क्या गरीर क्षय हो जायगा ? बडे-बडे बगलो की बजाय भोपटी का प्रानन्द लिया जाय तो वह निराला होगा। प्राप एक पोर बडी बढी नपत्याएं करते है और दूसरी घोर परिग्रह के पीछे पढे पहने हैं । वया यह उप तपग्या को लज्जित करना नहीं है ? नियरियही महावीर के अन्यायी गरीबो का खून चूसते रहे । यह स्वर महावीर को लज्जित का ने जैगा कार्य है । श्रापको गम्भीरता से कहना चाहता है कि प्राप अधिक न बन सब तो कम-से-कम यह प्रतिज्ञा नो प्राज के दिन प्रदाय करे कि पाप किसी पर मुकद्दमा नहीं करेंगे और अोली सम्पनि के गारण अपने मात्यो के पोन मे पलह का बीज कतई नहीं बोएंगे। मैं प्रापरे पूत, राम दा नाम क्यो प्रसिद्ध ? गया वे दशरथ के पुत्र नलिए? नहीं, उनमें दी बात की उन्होने अपने जीवन में कि वे अपने भाई के लिए साग गर मान वर वन में ले गये । महावीर और राग जैसे महापुरपो को अपनी नमागेह मनाना तमा राफल माना जा सकता है, वहन महापुरपो के जीवन के प्रादों को पाने जीवन में उतारे वरना व समारोह वगैरानादाद नाकम्प माना जायगा पौरनरी प्रपनी पात्मा में कोई जागररा पैदा नहीं होगी। पाये गाम्यवाद समाजवाद परिह निशान के ही पान्तर है। यदि त् परिगहना निपारद र जीभीपने जीवन में उतारे तो वे पने जीवन में तो शानद दा अनुभव कसे ही-सा ही हारा दुनिया में
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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