Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 117
________________ i १६३ न सिद्धान्तमेानाि जन के साथ ऐसा प्रन्याय क्यो कि छुवाछूत की प्रथा चलाई जाय ? इमी छुपासून हरिजनो के सस्कारो को गिनाया है और उनके जीवन में प्राच रण की विकृतियों पैदा की है। आज जब उन्हें समाज मे समान दर्जा मिलने लगेगा तो स्वयमेव उनके जीवन मे भी विकास होने लगेगा | तो महावीर ने इस छुप्राछून को भी बुनियाद से हिलाया था । धर्म वाणवरण जो भी करेगा, वह ऊंचा चढेगा । उसमे कोई भेदभाव नहीं कि चाहाल, श्रावक या साधु धर्म का प्राचरण न कर सके । जैन धर्म मे यो तो का हरिजन वा चाडाल हुए होने किन्तु चाडाल मुनि हरिकेशी बडे प्रतापी हुए है यद्यपि हरिकेशी प्रत्येक बुद्ध थे, वे स्वयं प्रतिबोध पाये । स्वयं ही दीक्षित हुए । श्रोर गण व गुरु किसी की भी सहायता न लेते हुए साधना क्षेत्र में धागे बढे व चरम विकास कर मोक्षगामी हुए । प्रत उनकी वह या हमारे लिए श्रादर्श उपस्थित करती है । जैन धर्म ने जाति, वर्ग व बुल के भेदभावो की जगह मानव समता ही नही बल्कि प्राणी मान की नमता की स्थापना की और गुण पूजा तथा ग्राचरण को महत्ता प्रदान की । इस तथ्य का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य अपने ज्ञान और प्राचरण का विकान करके अपने जीवन मे प्रगति लान का प्रयास करे और जो इन प्रेणियों में ऊपर चटता जायगा वही अपने गुणो की दृष्टि से ऊंचा होता जायगा । यह धारणा है जिसमे हर प्राणी मे विकास का एक उत्साह जागता है घोर होन मान्यता पैदा नही होती । ममाज मे आध्यात्मिक व व्यवहारिक समता पैदा करने का महावीर वा यह धनुपग उपदेश पा । पुरषो मोर स्त्रियों की दिवास क्षमता मे भी जैन धर्म कोई भेद नहीं बन्ता वयोकि मात्म-विदास मे लैंगिक भेद को भी कोई दाघा नहीं होती । समादर की दृष्टि से भी हमारे यहां दोनो मे भेद नही होती क्योकि समादर की दुनियाद हमारे यह साधना और गो पर है । धाप पुरुष होते हुए भी साध्वियो को treat करते ही है, क्योंकि स्त्री होने हुए भी साधना मौर रणों से मे आप भाषको से ऊंची होती है । वास्तव में देखा जाय तो जैन

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