Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 113
________________ जैन सिद्धान्तों में सामाजिकता यह भगवान महावीर की प्रार्थना है । भगवान महावीर का जन्म ढाई हजार वर्ष पहले उस समय हुआ था जब चारो ओर घोर हिंसामय विकृतियां छाई हुई थी। पुरोहितो ने धर्म पर ठेका जमा लिया था तथा ईश्वर और मनुष्य के बीच सम्बन्ध कराने के वे ठेकेदार बन गये थे । वर्ण-व्यवस्था के नाम पर समाज मे फूट, कलह तथा पारस्परिक विद्वेष की भावनाएं प्रबल रूप धारण की हुई थी। छुवाछूत के झूठे झगडे पूरी मात्रा मे चल रहे थे और ऊंच-नीच का भेद कटु और वीभत्स हो रहा था । धर्म के नाम पर यनो मे घोडे और मनुष्यो तक की बलि दी जाती थी और उसे हिंसा नहीं कहा जाता था। इस तरह अमानवीय लीला के उस वातावरण मे भगवान महावीर ने जन्म लिया था। और जहाँ ज्यादा विकृति फैल रही हो, महापुरुषत्व भी उसी मे प्रकट होता है कि अन्धकार मे प्रकाश की ज्योति जगाई जाय । फिर महावीर तो युग पुरुष थे। उन्होने समाज मे नई समानता की भावना का विकाम किया। यद्यपि उन्होने जिस जैन शासन को प्रदीप्त किया, उसका मुख्य मार्ग निवृत्ति मार्ग है अर्थात् सासारिक प्रपचो से जितनी मात्रा मे निवृत्त हुया जा सके, रोकर प्रात्मा को मुक्ति मार्ग की ओर आगे बढाया जाय । प्रत्यक्ष लक्ष्य साफ था लेकिन निवृत्ति की भावना हो ससार के प्राणियो मे तब पैदा होगी, इस प्रश्न पर महावीर ने गम्भीरता से सोचा और उस विकृत्तियो से भरे युग मे उन्होने एक-एक विकृति को चुन-चुनकर मानव हृदयो मे से काटा व एक नये प्रास्थावान् वातावरण का सर्जन किया। यह निश्चय है कि जब तक सासारिक क्षेत्र मे ही एक भावनापूर्ण वातावरण की सृष्टि नहीं होगी, समाज मे परस्पर व्यवहार की रीति-नीति समान व सम्यक् नहीं बनेगी तो निवृत्ति के मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति भ

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