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१०० जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा ? का रस्म के मुताबिक खूब सत्कार किया। किन्तु रोज ससुराल मे पकवान साते हुए वे चारो वहां टिक ही गये । महाजन उनकी सेवा-सत्कार से घबराने लगा लेकिन मुंह से जाने को किस प्रकार कहे, इस विचार से उसने तरकोव करनी शुरू की। उसने पक्ववान्न चन्द करके वाजरे का खीच और घी देना शुरू किया तो बडा जामाता समझ गया कि यह रवाना हो जाने का संकेत है । उसने प्रस्थान करने की स्वीकृति मांगी श्रीर दिखावे की मनुहार के बाद विदा हुमा।
किन्तु तीनो जामाता तो खीच, घी का आनन्द ही लूटने लगे और जमे रहे तो महाजन ने घी की जगह तेल शुरू कर दिया । इस पर दूसरे जामाता से भी विदा ली। लेकिन बाकी दो तो फिर भी टिके रहे। तब महाजन ने कहा कि उनके पल ग, गद्दे वगैरह धूप मे देना है सो वे सब मंगवा लिए और उन्हे सोने के लिए खाली दरियाँ दे दी। इस हरकत पर तीसरा जामाता भी विदा कर गया लेकिन चौथा जामाता फिर भी वेशर्म बना रहा तो महाजन ने एक और तरकीब की । दिखावे के रूप मे महाजन अपने बेटे से लडने लगा तो जामाता बीच-बचाव करने छुड़ाने गये तो दोनो ने मिलकर उनकी मच्छी पूजा कर दी । प्राखिर तब चौथा जामाता भी घर गया।
यह दृष्टान्त मिलता है अपने ही जीवन की चारो अवस्थाओ से । हमारा घर है मुक्ति-सिद्ध स्वरूप स्थिति और यहां माया से जुड़कर संसार के ससुराल मे पडे हुए हैं जिसे ससम्मान छोड देने मे ही आत्मा का कल्याण है। प्रात्मा स्वय ईश्वर रूप है किन्तु उस समय प्रच्छन्न रूप को निखार देने के लिए जरूरी है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र के मार्ग की आराधना दी जाय और कर्म मल को काटा जाय जिससे यही प्रात्मा-परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट रूप ग्रहण कर सकें।
एक अपेक्षा से जैनधर्म ईश्वरवादी नही है किन्तु दूसरी अपेक्षा से ईस्वरवादी है भी सही । एक ईश्वर है और वह कर्ता है । ऐसी मान्यता में हम सत्य नहीं देखते हैं किन्तु हर प्रात्मा मे ईश्वर का रूप विद्यमान है जिसे परम प्रगति के बिन्दु तक उठा देने पर वह रूप प्रकाशित हो जाता है । एक