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जन-संस्कृति का राजमार्ग कर देता है, उसी प्रकार ईश्वर भी इन सब जीवो को क्रीडा कराकर निश्चित अवधि पर समाप्त कर देता है। परन्तु ऐसा मानने पर ईश्वर, ईश्वर नहीं रहता । यह तो बच्चो के खिलौने की तरह कल्पना कर ली है। जैन दर्शन ईश्वर के स्वरूप को इस प्रकार नहीं मानता।
प्राज प्रात मैं बाहर जाकर पा रहा था कि एक भाई मिले । बातचीत के दौरान मे उन्होने पूछा कि आज किस विषय पर व्यास्यान होगा। मैंने कहा कि मैं हमेशा ईश्वर प्रार्थना बोलता हूँ सो आज पूरा व्याख्यान ही ईश्वरप्रार्थना पर होगा । वे बोले-जैन और बौद्ध तो ईश्वर को मानते ही नही, फिर पाप ईश्वर प्रार्थना के विषय मे व्याख्यान कैसे देगे? वे भाई ही क्या, दूसरे कई दार्शनिक भी जैनधर्म के तत्व को नही समझने के कारण कह देते हैं कि जैनधर्म अनीश्वरवादी है, अत नास्तिक है।
जिन लोगो ने ईश्वर को कुम्हार की तरह एकान्त रूप से कर्ता मान लिया है और राजा का तरह उसे नियन्ता मान लिया है, वे अपनी इच्छानुसार ईश्वर की कल्पना मानने वाले को ही ईश्वरवादी और प्रास्तिक समझते हैं एव अन्य लोगो को अनीश्वरवादी व नास्तिक कहते हैं । इसी भ्रान्त धारणा के श्राधार पर जैनधर्म को अनीश्वरवादी व नास्तिक कहा जाता है, पर वे यह नहीं समझते कि जैनो के २४ तीर्थकर हुए हैं तथा उनके नमस्कार मन्त्र मे पहले और दूसरे पद पर जिन प्रारिहत और सिद्धो को नमस्कार किया गया है वे ईश्वर ही हैं।
जैनधर्म में ईश्वर की जो परिभाषा दी गई है, वही अनुभव के घरातल पर सिद्ध और तर्क की कसौटी पर सत्य ठहरती है । ईश्वर के सत्य स्वरूप को समझने के लिए स्याद्वादी व नयात्मक दृष्टिकोण से जैनधर्म मे ईश्वर तीन प्रकार के माने गये हैं याकि ईश्वरत्व को तीन सपो में देखा गया है।
ईश्वर के वे तीन प्रकार इस तरह माने गये है-(१) सिद्ध, (२) मुक्त और (३) बद्ध।
सिद्ध ईश्वर का स्वरूप निरंजन, निराकार, निरामय, ज्योति स्वरूप माना गया है । प्राचारांग सूत्र मे सिद्धस्वरूप का विस्तृत वर्णन है। जिनके