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जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा?
६६ दूसरी बात है वह भगवान् कहाँ है ? जिसके हम दर्शन करे। वह भगवान् और कही नही है, आपके ही हृदय के अन्दर विराजमान है । कहा है
देह देवालय प्रोक्त', जीवो देव सनातन ।
त्यजेद ज्ञान निर्माल्य सोऽह भावेन पूज्येत् ॥ भगवान् जिस मन्दिर मे रहते हैं, वह मन्दिर हमारी ही देह है और उसमे रहा हुआ चिदानन्द प्रात्मा ही सनातन देव है। यह प्रज्ञान के कारण ही अपने स्वरूप को भूल चुका है। इसलिए इस अज्ञान को छोडो और "मैं ही भगवान् हूँ।" इस निष्ठा से अपनी प्रात्मा का ही समादर करो-भगवान् का पता अवश्य लग जायगा।
इस विवरण से मैंने यह कहना चाहा कि भगवान कोई अलग वस्तुस्थिति नही, वह तो एक स्वरूप है, अनुभाव है जिसके दर्शन अपनी ही प्रात्मा की उच्चता के साथ अपने ही दिव्य चक्षुषो से किया जा सकता है । अब जैनधर्म मे ईश्वरवाद का स्वरूप किए ढग से वणित किया गया है, उसकी सूटम ना पर प्रकाश डालने के पूर्व एक शका का स्पष्टीकरण करना चाहता हूं कि ईश्वर को मृष्टि का कर्ता मानने वाले दर्शनो के सम्बन्ध मे जनधर्म की मान्यता क्या है ?
पई दर्शन ऐसे है जो ईश्वर को इस सृष्टि का कर्ता मानते हैं । उनका वहना है कि ईश्वर ने ही जीवो को बनाया और समार की समस्त दृष्टिगत वस्तुणे की रचना की । इसके बाद भी ईश्वर इनकी पालना करता है, इनका विनाश करता है और नवीन रचनाएँ करता रहता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पेड का एक पत्ता भी नहीं हिलता तथा उसके चलाये ही हर पदार्थ गति करता है । इस मान्यता का निष्कर्ष यह हुआ कि ईश्वर, ईश्वर है जो हमशा एक व नित्य रूप से ईश्वर ही रहता है तथा अन्य जीव, जीव है जो कभी भी ईश्वर का रूप नही ग्रहण कर सकते, अर्थात् जीव कभी भी अपना विकास कर भगवान् नही बन सकता और भावना सदैव सूत्रधार की तरह इन सर चीजो का निर्माण, पोपण व विनाश करता रहकर क्रीडा व अानन्द । करता है। सूत्रधार अपना नाटक खेलबार जिस प्रकार उन पात्रो को समाप्त