Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 106
________________ १०२ जैन-संस्कृति का राजमार्ग • रहती है । यह बद्ध ईश्वर ही सृष्टि का निर्माण करता है । वृक्ष को बीज मे रहे हुए श्रात्मा ने ही बनाया है, पानी में रहे हुए जीवात्माश्रो ने पानी की तरलता का निर्माण किया । श्राज का विज्ञान भी वनस्पति मे तो जीव स्वीकार कर चुका है किन्तु पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि आदि में नही करता । पानी और वायु मे केवल उन्ही त्रस जीवो को वह मानता है जो दूरवीक्षण यत्र से देखे जा सकते हैं पर उनके पिड नही मानता। जैन दर्शन मे इन पिंड शरीरो का विस्तृत वर्णन है कि इनमे जीव कैसे हैं और वे जीवात्मा मिलकर पुद्गलो को ग्रहण करते हुए किस प्रकार इन पदार्थों की रचना करते हैं ? हमारे शरीर को भी हमारी प्रात्मा ने गर्भ मे माता की रसवाहिनी नाड़ी से रस दे देकर बनाया है तो उसी तरह सारे बाह्य जगत् की जो सृटि है - जो मकान, सड़क, रेल मोटर आदि निर्माण कार्यों का जाल बिछा हुआ है वह इन्ही बद्ध आत्माओ की रचना है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, कोट, पतग, पशु आदि अपने-अपने ढंग से ससार के कई पदार्थों की रचना मे योग देते हैं तो मनुष्य ने प्रपने मस्तिष्क और अपनी बुद्धि से प्राज जगत् की विविध दृश्यावलियाँ निर्मित की है। जैन धर्म इस तरह सृष्टि का कर्ता, निर्माता वा नियन्ता किसी एक का नित्य वा अधूरे ईश्वर को नही मानता, वह तो इस समस्त क्रिया कलापो का कर्ता उन सब आत्माओ को मानता है जो इस संसार मे वद्ध है और अपने एकाकी वा सामूहिकप्रयासो से सृष्टि की रचना मे योग देते रहते हैं । के और जैन धर्म की सूक्ष्म सिद्धान्त दृष्टि के अनुसार ये सब बद्ध ईश्वर की तरह निश्चय दृष्टि मे शुद्ध स्वरूपी हैं किन्तु तैजस कामणं शरीर से बधा हुना होकर अपने शुद्ध स्वरूप को भूला हुआ है। जैन दर्शन की इस मान्यता के पीछे श्रात्मानो को अपने विकास के लिए प्रेरणा का अदभुत स्रोत बह रहा है । यह नही कि श्रात्मा सिर्फ ईश्वर की छाया है, उसका कोई स्वतन्त्र मस्तित्व नही, बल्कि सभी श्रात्माएँ पूर्ण विलग व स्वतन्त्र हैं तथा उन सब यद श्रात्माओ मे ईश्वरत्व छिपा पडा है । वे सब शक्ति धारिणी हैं, आवश्यकता कि वे अपनी मात्माप्रो पर लगे कर्म मैल को पूरी तरह धोकर

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