Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 39
________________ ITI I PUUTARA GRINASIR BIKANER) • स्यावाद • सत्य का साक्षात्कार - -1 30 स्वरुप समझ लिया है । अतः किसी वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणो के आधार पर देखने, समझने व वरिणत करने से विज्ञान का नाम ही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद या अपेक्षावाद (Science of Versatility or Relativity) कहा गया है। जैनदर्शन का यह स्याद्वादी दृष्टिकोण किसी भी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को हृदयगम करने के लिए परमावश्यक साधन है। इसके जरिये सारे दृढवादी या सढिवादी विचारो की समाप्ति हो जाती है तथा एक उदार दृष्टिकोण का जन्म होता है, जो सभी विचारो को पचा कर सत्य का दिव्य प्रकाश शोधने में सहायक वनता है। स्याद्वाद का यह सिद्धान्त हमारे सामने सारे विश्व की वैचारिक और तदुत्त्पन्न सार्वदेशिक एकता सुनहला चित्र प्रस्तुत करता है। मैं यह साहस के साथ कहना चाहूंगा कि यदि इस सिद्धान्त को विभिन्न क्षेत्रो मे रहे हुए ससार के विचारक समझने की चेष्टा करे तो कोई सन्देह नहीं कि वे अपनी सघर्षात्मक प्रवृत्ति को छोड़कर एक दूसरे के विचारो को उदारतापूर्वक समझकर उनका शान्तिपूर्ण समन्वय करने की श्रोर प्रागे वढ सकेगे। इससे पूर्व कि स्याहाद के विशिष्ट महत्व को विस्तार से समझा जाय, जगत के वैचारिक संघर्ष की पृष्ठभूमि को पूर्णतया समझ लेना जरूरी है । मनुष्य एक विचारगील प्राणी है तथा उसका मस्तिष्क ही उसे सारे प्राणी समाज मे एक विशिष्ट व उच्च स्थान प्रदान करता है । मनुष्य सोचता है रवय हो और स्वतन्त्रतापूर्वक भी, प्रत उसका परिणाम स्पष्ट है कि विचारो को विभिन्न दृष्टियां ससार मे जन्म लेती हैं। एक ही वस्तु वे स्वस्प पर भी विभिन्न लोग अपनी-अपनी अलग-अलग दृप्पियो से सोचना शुरू करते हैं । यहाँ तक तो विचारो का क्रम ठीक रूप मे चलता है। किन्तु उमसे नागे क्या होता है कि एक ही वस्तु को विभिन्न हप्टियो मे सोचकर उनके रदरप को समन्वित करने की ओर से नहीं रुकते । जिसने एक वस्तु की जिस विशिष्ट दृष्टि को सोचा है, वह उसे ही वस्तु का सर्वाग स्वस्प घोपित कर अपना ही महत्त्व प्रदर्शित करना चाहता है । फल यह होता है कि एकान्तिक

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