Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 78
________________ ७४ जन-संस्कृति का राजमार्ग होती हुई पुन उसी के कानो मे गिरती है। वैसे इस बात की हंसी उडाई जा सकती थी, किन्तु वर्तमान विज्ञान की इस सम्बन्ध मे सफल खोजो के बाद यह स्थिति नही रही । वैज्ञानिको ने ध्वनि को तीव्र गति वाली साबित कर दी है, बल्कि रेडियो द्वारा उसे नियन्त्रित रूप से सर्वत्र पहुंचाया भी जा रहा है। इसी तरह अन्य कई तथ्य हैं, जिन्हे "जैन सिद्धातो मे वैज्ञानिक तत्त्व" शीर्षक के नीचे ही विस्तार से समझाया जा सकता है । इनमे अणुविज्ञान, वनस्पति विज्ञान प्रादि कई तत्त्व हैं। जन जिसे चौदह 'राजु' लोक कहते है, वैष्णव उसे चौदह लोक और -मुसलमान चौदह तलव बताते हैं । इसी प्रकार अन्य कई बाते हैं इस गरिणतानुयोग की-जो दूसरो की मान्यताप्रो से भी मेल खाती हैं। ग्राज स्वर्ग व नरक के लम्बे वर्णनो से नवयुवको मे अश्रद्धा उत्पन्न होती है, किन्तु वे प्रकृति के व्यवस्थाबद्ध क्रम को नहीं समझना चाहते । प्रापके लोकिक व्यवहार मे भी तो कुछ ही सैकडो मे जो किसी मनुष्य की हत्या कर डालता है, उसे फल कितना लम्बा भुगताया जाता है-आजीवन कारावास । अगर यहा भी यह व्यवस्था है तो प्रकृति के कार्यों मे कोई इसके लिये व्यवस्था नहीं। दूसरे स्वर्ग, नरक का वर्णन उनके वर्णन मात्र की दृष्टि से 'प्रमुख नही, बल्कि जिस तरह आज के न्याय-दण्ड का एक लक्ष्य उदाहरणात्मक होता है उसी तरह इनके वर्णनो से प्रात्मा यह सोचने का प्रयास करे कि हत्या करने पर यह सजा होगी और धोखादेही के मामले मे अमुक दफा लगेगी तथा उसके बाद अपने आपको वह दुष्कर्मों से बचा सके । इसके विपरीत स्वर्ग का वर्णन उसे सत्कर्मों की घोर प्रेरित करता है। जैसे वायु के उतार-चढाव व दवाव को मापने का पैमाना दूसरा होता है और सोना-चादी तोलने का दूसरा-एक ही कांटे से दोनो का माप-तौल नहीं लिया जा सकता, उसी तरह विज्ञान की अभी भी अपूर्ण स्थिति मे इन तथ्यो मे अविश्वास पैदा कर लेना उचित नही कहला सकता। यह सुनिश्चित है कि यह सारी गरिणत भी गणित के लिए नहीं बनी है, बल्कि उसका मूल उद्देश्य भी जीवन-विकास में सहयोग देना ही है। अत इस गणितानुयोग का भी उसा

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