Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ ८६ जन-संस्कृति का राजमान है और उसके परिणाम भी स्पष्ट अनुभव आते हैं । स्वप्नावस्था में इन्द्रियाँ सो जाती हैं लेकिन मन जागता रहता है और वही अपनी कल्पना के अनुरूप स्वप्निल सृष्टि की रचना करता रहता है। तीसरी सुपुप्ति अवस्था हैइसमे इन्द्रियाँ और मन सब सो जाते हैं अर्थात् प्रगाढ निद्रा आ जाती है जो अवस्था निरोगी व्यक्ति द्वारा आनन्दित व उपभोगित होती है। इस समय आत्मा 'प्रपूर्व सुख का अनुभव करता है । यद्यपि यह प्रानन्द अव्यक्त रहता है किन्तु उसकी अनुभूति फिर भी अत्यन्त सुखकर प्रतीत होती है। गहरी नीद के बाद शरीर हल्का और बुद्धि सतेज मालूम देती है । मन और मस्तिष्क से यह प्रानन्द बडा ही निराला लगता है। तो यह मानन्द कब भोगा जा सकता है जब इन्द्रियां व मन का व्यापार वन्द होकर केवल प्रात्मा सजग रहता है वह भी सिर्फ अनुभूति की दृष्टि से । तो कल्पना कीजिये कि पात्मा की यह एकाग्रता यदि जागृत अवस्था मे बनने लगे, मन और इन्द्रियो की गुलामी छूटकर जीवन का क्रम आत्मा की अान्तरिक आवाज़ का अनुकरण करने लगे तो वह मानन्द वास्तव मे विशिष्ट अानन्द होगा और उसी प्रानन्द की निरन्तर बढती हुई अनुभूति मे आत्मा का पावन स्वरूप निखरता जायगा। जब तक यह प्रानन्द देश, काल और वस्तु को परिधियो मे बन्द रहेगा तब तक वह प्रानन्द न होकर प्रानन्दाभास मात्र रहेगा। क्योकि देश की अपेक्षा मे पाप सोचते हैं कि ग्रीष्मकाल में नैनीताल या नीलगिरी गीत प्रदेश होने से प्रानन्ददायक होते है किन्तु वे ही प्रदेश शीतकाल मे श्रापको प्रानन्ददायक नहीं हो सकते। इसी प्रकार काल और बाह का भी हाल है। वह श्रानन्द एक समय में होगा, एक प्रदेश मे होगा अथवा कि एक पदार्थ मे होगा किन्तु दूसरे ही समय, प्रदेश या पदार्थ की उपलब्धि होते ही वह नष्ट हो जायगा।। अत. यह पात्मिक प्रानन्द देश काल वस्तु से रहिन वर्णादिक भाव शून्य प्रात्मा मे ही निहित है और उसी मे रमरण करता हुया पात्मा पर मानन्द को प्राप्त होता है । इस प्रकार सत्-चित् और प्रानन्द के गुणो वाला

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123