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सर्वोदय -भावना का विस्तार
हरा-भरा रखता है |
यहाँ कवि ने परमात्मा की जय का जो नारा लगाया है, उसमे न केवल परमात्मा की ही जय उद्घोषित होती है, किन्तु परमात्मा के साथसाथ सारे संसार की ही जय का नारा उठता है । लोक रूपी शरीर मे सिद्धात्माएँ गिरोमणियां स्वरूप हैं, क्योकि जिनके ज्ञान रूपी प्रकाश मे सारा "हस्तामलकवत् " प्रतिभासित होता है । जहाँ मस्तिष्क की जय है, वहाँ सारे शरीर की भी जय हो ही जाती है, क्योकि मस्तिष्क की जय मे भी तो मारे नरीर के कार्य का सहयोग छिपा है तथा छिपी है मस्तिष्क से स्वसचालन के हेतु शरीर को प्राप्त होने वाली राजग प्रेरणा अर्थात् दोनो किसीन-किसी रूप मे है और दोनो पहिले - बाद सही किन्तु एक दूसरे के
सहायक है ।
यतः जिस प्रकार भारत की विजय मे केवल उस पर शासन करने वाली सरकार की ही विजय नही होती, किन्तु उसके समस्त निवासियो की विजय होती है उसी प्रकार परमात्मा की जय मे सतार के सभी प्राणियों की जय है, चाहे उन प्राणियों में जंन हिन्दू-मुस्लिम हो या पूंजीपति मजदूर हो या मित्र-शत्रु व मानव-पशु हो । इस भावना का नाम ही सर्वोदयवाद है । परमात्मा हमारे सम्बन्धो वा एक माध्यम है कि उसके द्वारा हम परस्पर समानता का वातावरण स्थापित करने का प्रयास करते हैं । 'सबका उदय हो, स मानवता के रहस्य को नमक कर प्रपनी अन्यायपूर्ण 'विशेषता' को छोडेर विश्वबन्धुत्व की स्थापना करें - इसी मे परमात्मा की जय दलने का सार रहा हुआ है। ब्राज हम प्रपनी जय चाहते हैं, किन्तु श्रपने विरोधी शब् की जय नही चाहन, उसका विनाश देखने की उत्सुक्ता रखते है, यही मान है और परमात्मा के स्वरूप को वास्तविकता से नही समभने वा फल है । परमात्मा के स्वरूप को पहिचानने वाला सच्चा भक्त अपनी जय नहीं चाहता । वह तो समस्त प्राणियो की जय मे ही श्रपनी जय समभता है । सभी पर उसकी समताभरी दृष्टि होती है ।
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यदि का शिरोमणि की जय बोलने मे