Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 94
________________ सर्वोदय-भावना का विस्तार जय जय जगत् शिरोमणि'.. . परमात्मा और जगत् का किसी-न-किसी रूप में सदैव सम्बन्ध रहा करता है। पहले तो जगत् के इस विशाल प्रागण मे ही परमात्मयन की मिद्धि के लिए कठोर साधना करनी पड़ती है, जबकि वह साधक आत्मा भी अन्य सासारिक प्रात्माओ की ही तरह विकार-मल से कलुपित होता है। दूसरे जब मुक्त होने पर वह साधक प्रात्मा ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है तो चाहे उसका जगत् से सम्बन्ध नही रहता, किन्तु जगत् का मुक्त आत्मा से विशिष्ट सम्बन्ध हो जाता है, क्योकि अन्य सासारिक प्राणियो के विकास हित वह मुक्तात्मा एक अनुकरणीय श्रादर्श के रूप में उपस्थित हो जाता है। इसोलिए कवि प्रार्थना करते हैं कि "हे प्रभु ! आपकी जय हो, क्योकि प्राप जगत् रूपी शरीर के सिर मे जडी हुई मरिण के समान हो ।!" प्रभु की 'पूजा इसलिए है कि 'नर से नारायण' बनने मे जो उन्होने अत्युत्तम विकास किया है, वह विकास विजय का चिह्न है और इसलिए माननीय है। उनके विकास के रास्ते को देखकर हमारे हृदय में एक अद्भुत प्रेरणा जागृत होती है और वही प्रेरणा आत्मोत्थान के लिए प्रति श्रावश्यक होती है। यह नहीं है कि सासारिक प्राणियो के चरम विकास से परे ही कोई 'ईश्वरत्व' है, जिसका स्वरूप अनादि काल से ही वैसा ही था। ऐसा 'ईश्वर' प्रगति के लिए कदापि प्रेरणा का स्त्रोत हो नहीं सकता। मनुष्य मे परम ईश्वर तक पहुंचने की जिज्ञासा तभी उत्पन्न होती है, जब वह यह देखता है कि उसमें भी वह व्यापक शक्ति समाई हुई है, जो ईश्वर मे होती है किन्तु वह अविकसित होने की अवस्था में प्रकाशित नहीं होती तो उसमे कर्मण्यता के भाव पैदा होना सहज स्वभाविक है । इस प्रकार परमात्मा और जगत् का साध्य-साधन के रूप में बना हुआ सम्बन्ध ही प्रगति की रूपरेखा को सदैव

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