Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 98
________________ १४ जैन-सस्कृति का राजमार्ग से प्रावेगा ? तो समाज के एक हिम्मे ने यह उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया कि व्यापार, खेती श्रादि साधनो से जीवनोपयोगी पदार्थ उत्पन्न कर वह समुदाय समग्र समाज के भरण-पोपण का प्रबन्ध करेगा तथा यह समुदाय 'वश्य' कहलाया । ___समाज की सुव्यवस्था को लश्य मे रख कर ही सम्भवत यह वर्णविभाग हुप्रा होगा, किन्तु समय प्रवाह के माय यह वर्ण-विभाग विकृत की ओर बढ चला । कत्र्तव्य की अपेक्षा जातिवाद को अधिक महत्व दिया जाने लगा। अपने को श्रेष्ठ बताकर अपनी ही पूजा-प्रतिष्ठा कराने के लिए अन्य वों का तिरस्कार और निरादर किया जाने लगा । शूद्रो को सबसे निकृष्ट माना जाने लगा, जिन्होने समाज की कठोरतम सेवा करना स्वीकार किया था और तो क्या, शूद्रो को शास्त्र सुनने का भी अधिकार नही बताया गया। यदि कोई भूल से सुन लेता तो उसके कानो मे गरम शीशा डाल दिया जाता था। शूद्रो का तिरस्कार करने की प्रवृत्ति का जन्म ब्राह्मण-मस्कृति की विकृति से ही हुआ। ब्राह्मण यदि प्राचार-विचार से श्रेष्ठ है और इसलिए वह ऊँचा रहे तो इसमे किसी को असहमति नहीं हो सकती, किन्तु शूद्रो का, क्योकि वे शूद्र हैं, तिरस्कार करना सर्वथा अन्याय है। शरीर के अन्य अगो को वस्याभूषण से सुसज्जित करके तथा सिर पर तुरे लगाकर सुन्दर साफा बांधकर शरीर के निम्न भाग को तिरस्कृत समझ यदि नग्न ही रखा जाय तो वह शोभनीय प्रतीत होगा ? वह तो शरीर का एक उपहासास्पद स्वरूप हो जायगा । यही आज के समाज का हाल है। जैन-सस्कृति का स्पष्ट दृष्टिकोण है कि फम्मुरणा बेमरणो होई कम्मुरणा होई पत्तियो। कम्मरणो वेसयो भवई, सुद्दो हबई कम्मुणा ।। कर्म अर्थात कार्य (माचार-विचार) से ही ब्राह्मणत्व आदि का आरोप किया जा सकता है। जैन-मस्कृति वर्ण को बपौती के रूप में नहीं मानती कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण ही है, चाहे व विलामी, हत्यारा और पापी

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