Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 91
________________ जैन दर्शन का तत्त्ववाद जीव तत्त्व ही मोक्ष का मूल है। यह जीव तत्त्व की परिभाषा है और सक्षेप कहा जाय तो "उपयोग लक्षणो जीवः" अर्थात् उपयोग लक्षण वाला जीव है। यह जीव तत्त्व जब अजीव तत्त्व के साथ मेल करता है तो ससार की सृष्टि होती है। प्रात्मा जीव है किन्तु शरीर के पुद्गल जड है और जब ये दोनो सम्बन्ध जोडते हैं तब चलता-फिरता गरीर नकर पाता है। सारे संसार मे या तो जीव और अजीव के सम्बन्धो के श्राकार प्रकार हैं अथवा इस सम्बन्ध से रचित पोद्गलिक पदार्थ । ये सब मिलकर सारे दृश्य जगत् का ढांचा बनाये हुए हैं। मजीव तत्व याने जड-पुद्गल का स्वभाव सहना, गलना, बदलना और नित्य प्रति इसकी पर्याएं बदलती है। शरीर को ही देखिये बालक का अनहाय शरीर युवक के सुगठित शरीर मे उदलता है किन्तु एक दिन वही सुगठित शरीर वृद्धावस्था के नखदन्तहीन जर्जर शरीर मे बदल जाता है और त्रात्मा के निकलते ही श्मशान मे जलाने योग्य हेय हो जाता है। यही अवरथा अन्य सारे पुद्गतो की है जो नष्ट-भ्रष्ट होते रहते हैं। और जीद व अजीव को बांधने वाले तत्व का नाम है वध तत्व । इस शक्ति के द्वारा पुद्गल प्रात्मा के साथ सम्वन्वित होते रहते हैं और जीव और अजीव तत्व का मेल कराके उन्हे ससार मे परिभ्रमण शील बनाये यह बंध होता है नात्मा के साथ कार्माण वर्गणा के पुद्गलो का। जैसे कोई तेल मालिश करके रेती पर लेट जाय तो अजीव होते हुए भी रेत करण उसके शरीर से चिपक जाएंगे उसी प्रकार से जव अात्मा अशुभ व शुभ भावनायो मे वहता है और उससे प्रेरित होकर वैसे ही कार्य करता है तो रेल करणो की तरह वारिण वर्गरणा के अशुभ या शुभ पुद्गल आत्मा के साथ बलग्न होते है-इन्हे ही पाप या पुण्य कर्म कहा गया है । पाप और पुण्य तत्त्व वध के फलस्वरूप सामने प्राते हैं और दोनो शशुभ या शुभ फलदायक होते है। इन्ही तत्वो के कारण प्रात्मा जगत् मे (रिभ्रमण करता हुआ सासारिक सुखो या दुःखो का अनुभव करता रहता

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