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शास्त्रो के चार अनुयोग
७६पूर्व कर्मो की निर्जरा व नये कर्मों के बन्ध होने का यह क्रम इस सृष्टि मे चलता ही रहता है, जब तक सारे कर्म खपाकर आगे के बन्ध को रोककर प्रात्मा का सर्वोच्च उत्थान प्राप्त नहीं कर लिया जाता। कर्मों के विभिन्न फलाफल के अनुसार ही जीव विभिन्न गतियो मे भ्रमण करता रहता है। जैन दर्शन में पृथ्वी, पानी, वनस्पति, हवा व प्राग मे भी एकेन्द्रिय जीव माने गये हैं, जिन्हे केवल स्पर्श की अनुभूति होती है। ये प्राणी भी उच्चतम विकास करते हुए मनुष्य, देव प्रादि योनियो तक पहुँच सकते है । मनुष्य और देव भी अघम कार्य करता हुश्रा एकेन्द्रियो के रूप मे अपने आपको पहुँचा सकता है। यहां तो अपने कर्म के अनुसार गति की ऊंची नीची दिशा का निर्माण होना माना गया है । सर्वोच्च विकास मे नीचा आत्मा भी शुद्ध बुद्ध रूप हो सकता है, जिसे सिद्ध या परमात्मा करते हैं । हमारे यहाँ ईश्वर का नियन्ता ल्प नही माना गया है ।
ससार का यह गतिचक्र जीव व पुद्गल के सयोग से चलता है, जिसे समझने के लिए जैनागमो मे 'नव तत्त्व' का उल्लेख किया गया है। पुद्गल वर्ण, गध, रस व स्पर्श युक्त है, जो जीव के साथ सम्बन्धित होकर ससार की बहुरूपा माया की रचना करता है।
इसी द्रव्यानुयोग मे छः लेश्यानो अर्थात् प्राणी के विभिन्न भावो की स्थिति का भी दिग्दर्शन कराया गया है तथा इसी तरह चौदह गुण स्थानों का भी वर्णन है, जो प्रात्मा विकास की श्रेणियो के रूप मे दिखाये गये है।
जैनधर्म मे किसी भी पदार्थ या तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए नयवाद व स्याद्वाद की दृष्टि से देखना होता है, क्योकि इनकी सहायता के दिना उसके विभिन्न पहलू नज़र नहीं पावेंगे तथा प्राप्त ज्ञान सिर्फ एकान्तिक दृष्टिकोण वाला होगा।
जैन दर्शन ज्ञान का एक विशाल भडार है, उसकी मैं आपको सिर्फ एक झलक मात्र दिखा सका हूँ और इसके बाद में प्रागा करूं कि आप विद्वान् लोग इसके गह्न अध्ययन और तत्त्व चिन्तन की घोर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। सब्जी मण्डी, दिल्ली
ता० १-२-५॥