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जैन-संस्कृति का राजमार्ग इस समूचे तत्त्ववाद को नो भागो मे विभक्त किया गया है । यद्यपि अन्य दर्शनो मे कई तत्त्व माने गये है, किन्तु जैन दर्शन इन्ही नौ तत्त्वो को सम्पूर्ण सृष्टि का आधार मानता है, इसलिए परमात्मा के भजन को हम सिर्फ नाम-स्मरण मे ही समाप्त नही मानकर तत्त्व-विचारणा तक ले जाते हैं । इन्ही तत्त्वो का मनन और चिन्तन करते हुए सुनानी जीव इस ससार के भ्रमण चक्र से निकल कर परमात्मा की स्थिति में परिवर्तमान होते हैं, जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
अतः मैं आपको नी तत्त्वो का स्वरूप सक्षेप मे स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस तत्त्वज्ञान की सीढी से हम भी प्रात्म विकास की दिशा मे अग्रगामी हो।
ये नौ तत्त्व इस प्रकार हैं-१. जीव, २. अजीब, ३ बन्ध, ४ पाप ५ पुण्य, ६. श्राश्रव ७. सवर ८ निर्जरा, ६. मोक्ष ।
मुख्यतया इन मे से दो तत्त्व प्रधान व महत्त्वपूर्ण हैं और वे हैं जीव व अजीव, जिन्हे अलग-अलग मतो मे जड चेतन, ब्रह्म माया अथवा प्रकृति-पुरुष नामो से पुकारा गया है। इन दोनो तत्त्वो मे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पदार्थों का समावेश हो जाता है।
हाँ, भौतिकवादी इन तत्त्वो के बारे मे अपना मतभेद प्रकट करते हुए वहते हैं कि जीव जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। सिर्फ परमाणु अर्थात् जड होता है, वही विकास की सीढियां चढ़ता हुआ विभिन्न रूप धारण करता रहता है। यही परमाणु विकास करते-करते जीवारण बनते हैं, जन्तुप्रो के श्राकार प्रकारो मे ढलते हैं और वानर से लेकर मानब तक का रूप बदलता रहता है और ये ही जीव-जन्तु व मानव मृत्यु की गोद में जाते हुए पुनः जड-पुद्गल रूप मे बदल जाते हैं। इस प्रकार भौतिकवादी आत्मा जैसी किसी शक्ति को नही मानना चाहते, उनका मानना है कि जैसे प्रापकी शक्ति से रेलगाडी चलती है, बिजली से मशीनें चलती हैं, उसी प्रकार विभिन्न
परमारणुप्रो के सम्मिलन मे जीव-जन्तु शक्ति प्राप्त करते हैं और अपना __ . जीवन प्रदर्शित करते हैं किन्तु जब वे परमाणु फिर से विलग हो जाते हैं तो