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जैन-दर्शन का तत्त्ववाद करना प्रारम्भ किया जा सकता है। जिन्हे यह जानकारी भी नही, उनको प्रज्ञानी कहा गया है और इसीलिए वे ज्ञान को कार्यान्वित करने में सक्षम नही माने गये है क्योकि परमात्मा को भजने की पूर्व स्थिति उनमे उत्पन्न नही हुई है। जिस प्रकार से सिंहनी के दूध को यदि स्वर्ण पात्र के अलावा अन्य धातु के पात्र मे ले लो तो पात्र टूक-टूक हो जायगा। स्वर्णपात्र मे ही यह क्षमता है कि उस दूध को टिका सके। उसी प्रकार सुज्ञानी जीव ही क्षमता रखते है कि वे परमात्मा के भजन मे अपने आपको योग्यतापूर्वक नियोजित कर सके।
अब प्रश्न उठता है कि सुज्ञानी जीव कौन कहे जावें ? आत्मा से परमात्मा तक के विकास क्रम का जिन्होने ज्ञान प्राप्त किया है और ज्ञानी होकर उसमे अपनी धास्था जुटाई है, उन्हे सुज्ञानी कहा जायगा । धर्म और उसके दर्शन की जो धुरी है वह है प्रात्माका परमोत्कृष्ट विकास, इसलिए इस विकास का मूल है प्रात्मा! कैसी प्रात्मा ? जो कि इस संसार के गतिचक्र मे भ्रमण कर रही है अर्थात् जड़ पुद्गलो के संयोग से जन्म-मरण करती हुई रन्धानुबन्ध करती रहती है। तो उस प्रात्मा का विकास कैसे हो? कौन से कार्य है, जिनसे प्रात्मा की भूमिका मे उठान पैदा होगी और वह उठान ऊपर-से-ऊपर चढती हुई सासारिक सकट की जड़ को ही काट डालेगी, जड़ और चेतन का सम्बन्ध समाप्त हो जायगा।
यह जो समस्त ज्ञान है वही प्रात्मा की विकास गति को पूर्णतया स्पष्ट करता है और यही प्राधारगत ज्ञान है, जिसकी रोशनी मे अन्य सारी विचार सरणिया विश्लेषित होती हैं। इसीलिए जैन-दर्शन मे इस ज्ञान को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है उसे तत्त्वज्ञान कहते हैं और यही तत्त्वज्ञान सुज्ञानी का लक्षण है।
जैन शास्त्रो मे इस तत्त्ववाद का बडा विशद् विवरण है और उसमे विस्तार ने बनाया गया है कि इन तत्त्वो पर ही प्रात्मा, परमात्मा और ससार की धुरी घूमती रहती है । यह तत्त्वज्ञान ससार के मूत से लेकर मुक्ति के मुख तक समाहित माना गया है।