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जैन दर्शन का तत्त्वद
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जीवन समाप्त हो जाता है उसी प्रकार जिस प्रकार की भाप सत्म हो जाने पर इजिन ठप हो जाना है । वे जड को ही महत्व देते है ।
किन्तु जैन दर्शन ऐसी विचाररणा को मिथ्या मानता है । चेतन जड़ से विकसित नही होता, बल्कि एक अलग शक्ति होती है निराकार जो जड के साथ मिलकर ससार के विविध रूपो का निर्माण करती है । जङ से जडपरमाणु का विकास हो सकता है, चैतन्य का उससे कतई विकास नही हो सकता, क्योकि जिस पदार्थ मे जो सत्ता है ही नहीं, वह उसमे किसी कदर उत्पन्न नही हो सकती । रेल का इजिन जड है तो उसमे चेतन शक्ति न तो कभी उत्पन्न हो सकती है, न उसकी जड शक्ति कभी भी विकसित होकर चेतन में बदल सकती है । भोतिकवादियो की ऐसी धारणा न तो वास्तविक है, न बुद्धिगम्य ही । क्योकि रजकणों को जीवन पर्यन्त भी पेलते रहो तो भी कभी उनसे तेल नहीं निकल सकता, कारण कि तेल की सत्ता भर्थात् स्निग्धता का सद्भाव तिलो मे है किन्तु रजकरणो मे नही है तो उसमे से वह सत्ता कभी भी प्रादुर्भूत नही हो सकती । श्रतः जैन दर्शन को मान्यता सत्य है कि चैतन्य शक्ति का विकास चैतन्य शक्ति से ही होता है तथा जड का सम्बन्ध छूट जाने पर चैतन्य शक्ति पुन. अपने मौलिक स्वरूप निखिल नभ्यता में प्रज्वलित हो उठती है ।
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तो हम विचार करें कि जीवतत्व की परिभाषा क्या ? जीव शब्द का पर्यायवाची है सच्चिदानन्द जिसमें तीन शब्द मिले हुए है, सत्त्रिन् ओर श्रानन्द 1 सत् का अर्थ है – “कालत्रय तिष्ठति इति सत्" अर्थात् जो तीनो काल मे स्थायी रहता है वह सत् है । नत् को यह भी व्युत्पत्ति है कि - "उत्पादव्ययांच्य षत सत्", जो पर्याय बदलने की दृष्टि से पैदा हो, नष्ट हो जाय किन्तु द्रव्य रूप से नित्य व शाश्वत रहे वह सत् होता है। हमारे लिए यह मत है कि हम भूतकाल मे थे, वर्तमान मे हैं थोर भविष्य मे रहेंगे । इसमे तीनो वागो मे द्रव्य रूप से आत्मा नित्य बना रहता है जो कि पर्याप्त से एक ही जीवन मे बाल, युवा, वृद्धत्त्व की प्रवस्याएं बदलती हैं श्रीर एक जीवन के बाद दूसरा जीवन भ्रात्मा धारण करता रहता है । तो जव