Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 84
________________ जेन दुर्शन का तत्त्ववाद "सुज्ञानी जीवा भज ले रे जिन इकोसवां .." यह २१ वे तीर्थकर भगवान् नेमिनाय की प्रार्थना है। इसमें परमात्मा के भजन पर जोर दिया गया है और वह भी करने के लिए सुज्ञानी जीवो को सम्बोधित किया गया है । जैन दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि परमात्मा पद कोई अलग वस्तुस्थिति नही बल्कि उसका स्वरूप प्रात्मा के ही परमोत्कृष्ट रूप मे जाज्वल्वमान होता है । यात्मा पर लगा हुआ कर्म का कलुष ज्यो-ज्यो धुलता जाय, गुण स्थान की सीढियो पर चढता जाय, चरम स्थिति होती है कि वही परमात्मा पर पहुँच जाता है। प्रात्मा से परमात्मा की गतिक्रम रेखा है, एक ही मार्ग के दो सिरे हैं जिनमे कर्म स्वरूप भेद हैं, मूल भेद नही । हमारी यह मान्यता नहीं कि ईश्वर इस जगत् या कि जगद्वर्ती प्रात्मानो से प्रारम्भ ही मे विलग रहा है और उसका जगत् की रचना से कोई सम्बन्व हो। जगत् का क्रम कर्मानुवर्ती माना गया है और उसी अनुवर्तन मे पुद्गल तमा -आत्माएं प्रेरित वा अनुप्रेरित होते हैं और चक्कर लगाते रहते हैं। प्रात्माएं फर्म चक्र मे फंसती है और धर्म बह प्राधारशिला है जिस पर चढकर वे इस चक्र से निकलने का पराक्रम भी करती है। इसी पराक्रम को सफलता का अन्तिम विन्दु परमात्मा पद है। इस दृष्टिकोण से परमात्मा को भनने का अव्यक्त अभिप्राय भी श्रात्मा को समझना, संवारना और साधना पथ पर अग्रगामी बनना हो मूलतः माना जायगा। इसीलिए इस प्रार्थना मे सुज्ञानी जीवो को सम्बोधित किया गया है। जो जीव अज्ञानी हैं, उनमे तो पहले ज्ञान की ज्योति जगानी होगी कि वे प्रात्मा से लेकर परमात्मा के विकास क्रम को जाने पर उसमें पास्था वनाएं। क्योकि इस जानकारी के बाद में ही साधना पथ पर गति

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